इस इकाई में षट्कर्म (shatkarm) का सामान्य परिचय दिया जा रहा है। इसमें आप जान सकेंगे हठ यौगिव ग्रंथों में शोधन क्रियाओं का क्या महत्व है। इसे योगाभ्यास के प्रारंभ में करना क्यों आवश्यक है और ये कितने प्रकार के होते हैं आदि का वर्णन है।
षट्कर्म (shatkarm) के प्रकार, विधि एवं जानकारी इन हिंदी
षटकर्म दो मुख्य प्राण प्रवाहों, इड़ा और पिंगला के मध्य सामंजस्य स्थापित करते हैं, जिससे शारीरिक और मानसिक शुद्धि एवं सनतुलन की प्राप्ति होती है। ये शरीर में उत्पन्न त्रिदोषों – वात, पित्त और कफ को भी संतुलित करते हैं। आयुर्वेद एवं हठयोग, दोनों के अनुसार, इन त्रिदोषों में असन्तुलन व्याधि को जन्म देता है। इन षटकर्मों का उपयोग प्राणायाम तथा योग के अन्य उच्च अभ्यासों के पहले किया जाता है। ताकि शरीर विकार रहित हो जाए तथा आध्यात्मिक मार्ग में अग्रसर होने में बाधा उत्पन्न न करे।
धौतिर्व॑स्तिस्तथा नेति: लौलिकी त्राटकं तथा।
कपालभातिश्चैतानि षटकर्माणि समाचरेत्।। – घेरण्ड संहिता 1.12
धौति, वस्ति, नेति, लौलिकी, त्राटकट और कपालभाति, इन छः कर्मों का आचरण योग साधक के लिए आवश्यक है। हठयोग के अभ्यास में सर्वप्रथम शारीरिक शुद्धि आती है और इस हेतु तीन अभ्यास समूह बताये गए हैं। एक अभ्यास समूह का सम्बन्ध शरीर के ऊपरी भाग से है जिसके अन्तर्गत सिर आता है और इसकी शुद्धि के लिए नेति नामक तकनीक अपनाई जाती है। दूसरा शुद्रिकारक अभ्यास धौति है। इसके द्वारा उदर से लेकर गले तक के क्षेत्र की सफाई की जाती है। तृतीय अभ्यास क्रिया छोटी और बड़ी आंतों से प्रारम्भ होता है। इसके द्वारा उत्सर्जक अंगों की सफाई होती है और इसे बस्ति कहा जाता है।
हठयोग के ये तीनों पहलू शारीरिक प्रकृति के हैं। इनका उद्धेश्य उन ज ‘व विषो तथा अशुद्धियों का निष्कासन करना है जो आहार संबन्धी आदतों के कारण शरीर के अंदर एकत्रित होती है। एक बार ज’व विषों का निष्कासन हो जाने पर शरीर शुद्धि की अवस्था प्राप्त कर लेता है। शुद्धि की वह अवस्था शरीर के आंतरिक अंगो तथा प्रक्रियाओ के कार्य सम्पादन में संतुलन की स्थिति लाने में सहायक होती है। योग शास्त्र में इन बातो का भी उल्लेख है। कि शरीर के अंदर जीवनी शक्ति के दुरुप्रयोग और असंतुलन के कारण हम रोगों का शिकार होते है। असंतुलन की इन अवस्था से बचने के लिए हठयोग के ये तीन पहलू विहित किये गये है।
1. धौति – जिसका अर्थ होता है हलकी धुलाई, धौति के अनेक प्रकार हैं और प्रत्येक के पीछे एक विशेष कारण और उद्धेश्य हैं। धौति का अभ्यास वायु, जल, वस्त्र और डण्डे से किया जा सकता है। इस अभ्यास समूह में दन्त धौति, जिहवा धौति, कर्ण धौति, वमन धोति, वस्त्र धौति, दण्ड धांति और तावसार धौति आते हैं। जैसा कि नाम से ही विदित होता है दन्त, जिहवा और कर्ण धौति क्रमशः दांतों, जिहवा और कानों की सफाई के तरीके हैं। प्रायः समस्त अंगों की सफाई के लिए धौति के अलग – अलग अभ्यास उपलब्ध हैं।
2. बस्ति – बस्ति आंतों तथा बृहदान्त्र की सफाई की प्रक्रिया है। यौगिक सिद्धांत के अनुसर रोग आंतों में उत्पन्न होते हैं न कि पेट में हम जो भोजन ग्रहण करते हैं वह अवशोषण हेतु पेट से होकर छोटी और बड़ी आंतों में जाता है। इसे आंत के एक भाग से दूसरे भाग में पहुँचने में कई घंटे लगते हैं। इस प्रक्रिया में पचे हुए भोजन के कुछ कारण आंतों की परतों में सटे रह जाते हैं। भोजन के ये अवशेष जब सड़ने लगते हैं तो वे अम्ल और दुर्गन्ध उत्सर्जित करते हैं। आंतों में भोजन के कणों के सड़ने से विष उत्पन्न होते हैं और ये शारीरिक रोगों के कारण बनते हैं। अतः भोजन के अपघटित अवशेषों को आंतों से बाहर निकालने के लिए विशेष सावधानी की आवश्यकता है। ताकि ताजे पौष्टिक तत्वों का अवशोषण वहां एकत्रित विषाक्त पदार्थों से दूषित हुए बिना हो सके। इस उददेश्य से योगियों ने आंतों की सफाई के लिए दो प्रमुख विधियों क आविष्कार किया।
3. प्राकृतिक एनिमा –जिसे बस्ति कहते हैं। इसका अभ्यास जल या वायु से किया जा सकता है। इस तकनीक में अवरोधिनी पेशियों को संकुचित करते हुए गुदाद्वार से जल या वायु को अंदर खींचा जाता है तथा वहाँ थोड़ी देर तक रोक कर रखा जाता है । इससे अन्दर में एक विपरीत बल या रिक्तता उतपन्न होती है और जल या वायु तेजी से बाहर निकली है।यह अभ्यास बड़ी आंत की सफाई के लिए प्रभावशाली होता है, विशेषकर जब मल सूख कर कड़ा हो जाता है। यह अभ्यास एक जल से भरे हुए टब में बैठकर या नदी अथवा तालाब में कमर या कण्ड तक जल में खड़े होकर किया जा सकता है। किन्तु यह अभ्यास तैरने के तालाब में नही करना चाहिए क्योकि उसमें पर्याप्त मात्रा में क्लोरीन रहती है। यदि अशुद्ध स्थितियों में यह अभ्यास किया जायगा तो इससे सफाई, शुद्धि और श्रेष्ठ स्वास्थ्य की प्राप्त न होकर नुकसान ही होगा। दूसरी अन्य विधि-
4. शंख प्रक्षालन –शंख प्रक्षालन का अभ्यास है जिससे छोटी और बड़ी आंतों की सफाई एक साथ ही हो जाती है। शंख प्रक्षालन की बस्ति की आधुनिक विधि माना जाता है। यह सबों को स्वीकार्य है तथा सभी इसका अभ्यास कर सकते है। इसमें सिर्फ जलवायु विषयक एवं भोजन सम्बन्धी प्रतिबन्धों का ध्यान रखना पड़ता है जिनका अनुकरण अभ्यास के बाद करना होता है। इस अभ्यास के दो प्रकारान्तर हैं – लघु शंख प्रक्षालन और पूर्ण शंख प्रक्षालन। लघु शंख प्रक्षालन में दो तीन बार दो – दो ग्लास गुनगुना नमकीन पानी पीना पड़ता है। प्रत्येक बार दो ग्लास जल पीने के बाद पाँच आसनों क अभ्यास किया जाता है। इससे आंतें ढीली पड़ जाती है तथा जल उनकी धुलाई करते हुए बाहर निकला है। पूर्ण शंख प्रक्षालन के अभ्यास में दो – दो ग्लास के क्रम से सोलह ग्लास या उससे अधिक गुनगुना नमकीन पानी पीना होता है एवं सम्पूर्ण पाचन संस्थानों को धो डालता है तथा आंतों में एकत्रित कणों को निकाल बाहर करता है। यह अभ्यास आंतों में बलगम के सभी स्तरों को भी हटा देता है। जिससे पाचन संस्थान अति संवेदनशील हो जाता है। इस अभ्यास के बाद मानसिक संवेदनशीलता भी बढ़ जाती है।
शंख प्रक्षालन और बस्ति के प्रभाव से स्त्रायुविक तंत्र उत्तेजित होते है, सम्पूर्ण पाचन संस्थान से विषाक्त पदार्थ निष्कासित हो जाते है, पाचन क्रिया में अप्रत्याशित सुधार होता है तथा सभी चक्रों को एक साथ जोड़ने वाली नाड़ियाँ संवेदनशील हो जाती है। शारीरिक शुद्धि की अवस्था का लाभ प्राणमय कोष को भी मिलता है। शरीर में प्राण का प्रवाह पुनर्गठित और पुनर्सरचित हो जाता है। प्राणिक शरीर पर इस अभ्यास के प्रभाव के कारण मन और शक्ति के स्तर अधिक संवेदनशील हो जाते हैं। इसलिए हम देखते है कि बहुत से लोग शंख प्रक्षालन के अभ्यास के बाद शारीरिक थकावट का अनुभव करते हैं। फिर भी उनके अन्दर पर्याप्त शक्ति रहती है। सम्पूर्ण शरीर में हल्कापन अनुभव होता है। मानो कि वह प्रवाहित हो रहा है, बहा जा रहा है शरीर में भारीपन नहीं रहता है।
5. नेति –इसका तात्पर्य नासिका की सफाई से है। किन्तु नेति की उत्पत्ति नासिका शुद्धि के अभ्यास के रूप में नहीं बल्कि आज्ञा चक्र से सम्बन्धित केन्द्रो की जाग्रति की एक तकनीक के रूप में हुई। जब नासिका विवर बन्द हो जाते हैं तो आँखों तथा ललाट के निकट तनाव, दबाव और अवरोध का अनुभव होता है। अवरूद्ध विवर के कारण प्रायः आँखें लाल हो जाती हैं, उनसे पानी आने लगता है तथा कान भी बन्द हो सकते हैं योगियों ने सिर के इस भाग का बहुत संवेदनशील माना। अतः उन्होंने कहा कि आँख तथा कान को प्रभावित करने वाले नासिका क्षेत्र की सफाई को सर्वप्रथम स्थान मिलना चाहिए। जल या क॑ थेडर की सहायता से नासिका-छिद्रों की सफाई की एक प्रक्रिया द्वारा इस उद्देश्य की प्रापित हो सकती है।
6. नौलि –बस्ति का उद्देश्य आंतों से विषाक्त पदार्थों का निष्कासन करना है। बस्ति के अभ्यास के बाद जब आंतें स्वच्छ और पूर्णतः स्वस्थ हो जाती हैं तब नौलि का अभ्यास किया जाता है। बस्ति एक क्रिया है और क्रियाऐँ बन्धों का अंग होती हैं। शरीर के आसनात्मक या संस्थितिक संकुचन को बन्ध कहते हैं, जैसे जालन्धर बन्ध, उडियान बंध और मूल बन्ध। क्रियाऐँ गतिशील संकुचन है। ये बन्धों की प्रारम्भिक और उन्नत दोनों तकनीकें हैं एक उदाहरण है अग्निसार क्रिया। अग्रिसार क्रिया फेंफड़ों को खाली करने का एक अति सरल अभ्यास है। इसमें बर्हिंकुम्भक लगा कर पेट को, जितनी बार सम्भव हो सके, भीतर-बाहर करते हैं, और तब गहरी श्वास लेकर शिथिलीकरण करते हैं निम्न उदरीय पेशियों के तीव्र संकुचन के परिणामस्वरूप मध्यपट तथा उदर के निम्र भाग सशक्त होते हैं। इस विधि का अभ्यास शरीर को उड्डियान बन्ध के लिए तयार करता है।
7. त्राटक – कपालभाति का लक्ष्य आज्ञाचक्र को जाग्रत करना है। आज्ञाचक्र की जाग्रति से मन के सुषुप्त स्तर उत्तेजित होते हैं। इन सुषुप्त क्षेत्रों के जाग्रत होने पर चेतन, अवचेतन और अचेतन से सम्बन्धित सजग बोध के भेद मिट जाते हैं। यह परिवर्तन आज्ञाचक्र के स्तर पर होता है।बोध या मानसिक जाग्रति का अवतरण आज्ञा चक्र के स्तर पर ही होता है। जागृति की उस अवस्था को प्रवाहित या निर्देशित होना चाहिए और यह कार्य किया जाता है त्राटक के अभ्यास के द्वारा त्राटक हठयोग का पॉचवां अभ्यास है। यह सजगता और मन की अधिकतम एकाग्रता प्राप्त करने की विधि है।
8. कपालभाति –जिस प्रकार नाड़ियों को शुद्ध करना आवश्यक है उसी प्रकार मानसिक सजगता को भी उन बन्धनों से मुक्त करना जरूरी है जो इसे इन्द्रिया एंव पदार्थ जगत से बांधते हैं। इस हेतु हठयोग के छठा अभ्यास कपालभाति का उपयोग किया जाता है। यह प्राणायाम की एक तकनीक है। यह वही कपालभाति है। इसका उद्देश्य शरीर की प्राणिक शक्ति को ऊँचा करना तथा आज्ञाचक्र म॑ उसे केन्द्रित और संकेर्द्रित करना है । यदि एक बार यह प्राणिक शक्ति आज्ञा चक्र में केन्द्रित हो जाय तो अन्य आध्यात्मिक केन्द्रों का जोंग्रत करने के लिए इसे पुननिर्देशित किया जा सकता है। कपालभाति का अभ्यास प्राणविद्या की तकनीक के एक अंग के रूप में भी सिखाया जाता है!
कपालभाति के अभ्यास का उद्देश्य बिखरी हुई मनः शक्तियों को केन्द्रित करना तथा मन और सजगता के क्षेत्र से मानसिक विषाक्तता को निष्कासित करना है। कपालभाति के अभ्यास से प्रथम तीन कोश प्रभावित होते है। अन्नमय कोश के एक अभ्यास के रूप में इसमें शारीरिक गति, श्वसन प्रक्रिया एव बन्धों तथा मुद्राओं का उपयोग किया जाता है। किन्तु इसका मुख्य लक्ष्य मानसिक सक्रियता को शान्त करना तथा प्राणिक शक्ति को जाग्रत करना है। दूसरे शब्दों में, यह क्रमशः मनोमय कोश और प्राणमय कोश को विशेष रूप से प्रभावित करता है।