घेरण्ड संहिता के सप्तांग योग | हठयोग का सामान्य परिचय हिंदी में

हठप्रदीपिका :

हठप्रदीपिका, हठयोग परम्परा की एक प्रामाणिक कश्ती है। इसके लेखक स्वामी स्वात्माराम हैं। स्वात्माराम के अनुसार श्री आदिनाथ (भगवान शिव) हठयोग परम्परा क आदि आचार्य हैं। नाथ सम्प्रदाय के आदि-प्रवर्तक गोरक्षनाथ हैं। स्वात्माराम के अनुसार हठयोग प्रदीपिका के चार अंग हैं। इसलिए इसे चतुरंग योग भी कहा जाता है। इसका विवरण हठप्रदीपिका में मिलता है। लेकिन कैवल्यधाम लोनावाला द्वारा प्रकाशित हठप्रदीपिका में हठयोग के पाँच अंग बताए गए हैं जिसमें पाँचवाँ अंग यौगिक चिकित्सा है।

हठयोग के अंग | प्राणायाम, आसन, बंध और मुद्रा का अर्थ हिंदी

हठयोग के अंग :

श्री स्वात्माराम जी के अनुसार हठयोग के चार अंग निम्न हैं-
(1) आसन, (2) प्राणायाम, (3) बंध एवं मुद्रा, (4) नादानुसंधान।
कैवल्यधाम लोनावाली द्वारा प्रकाशित पाँचवा अंग-यौगिक चिकित्सा है।
गोरक्षनाथ ने हठयोग के 6 अंग बताए हैं तथा घेरण्ड संहिता में हठयोग के 7 अंग बताए गए हैं। लेकिन हम यहाँ केवल हठप्रदीपिका के अंगों के बारे में पढ़ेंगे।

(1) आसान – आसान शब्दसांस्कृत के ‘अस्’ धातु से बना है जिसके दो अर्थ है – पहला आसान जिस पर बैठा जाता है तथा दूसरा शारीरिक अवस्था इन दोनों के समन्वय होने पर ही पूर्ण आसान कहलाता है। महर्षि पंतजलि ने कहा है –

स्थिरंसुखमासनम् योग सूत्र 2/46
जिस पर स्थिरापूर्वक सुख के साथ लम्बे समय तक बैठा जाए, वह आसान है। घरेण्ड संहिता ने कहा गया है।
आसनेन् भवेद्दृढम्
आसन से दृढ़ता आती है।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है-
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचल स्थिरः। गीता 6/73

काय (कमर से गले तक का भाग) सिर और गले की अचल धारण करके तथा दिशओं को न देखकर केवल नासिका के अग्र भाग को देखकर स्थिर बैठना ही आसन हैं। तेजबिंदु उपनिषद् में कहा गया है-

सुखेनैव भवेद्यस्मिन्नजस्त्रंब्रह्मचिन्तनम्
आसनं तद्विज्ञानीयादन्यत्सुखविनाशनम्॥ – 1/25

जिस स्थिति में बैठकर सुखपूर्वक निरंतर परमब्रह्म का चिंतन किया जाए, उसे ही आसन समझना चाहिए।

आसन के प्रकार –हठप्रदीपिका में 15 आसन बताए गए हैं –

(1) स्वस्तिकासन, (2) गोमुखासन, (3) वीरासन, (4) कर्मासन, (5) कुक्कुटासन, (6) उत्तानकूर्मासन, (7) धनुरासन, (8) मत्स्येंद्रासन, (9) पश्चिमोत्तानासन, (10) मयूरासन, (11) श्वासन, (12) सिद्धासन, (13) हपद्मासन, (14) सिंहासन, (15) भद्रासन।
महर्षि पतंजलि ने आसन के लाभ के बारे में कहा है –
ततो द्वन्द्वानभिघात:। योग सूत्र 2/48
दीर्घकाल तक आसनों के अभ्यास करने से शारीरिक स्तर पर होने वाले द्धंद्ध और उससे भी अधिक मानसिक स्तर पर होने वाले द्धंद्ध नष्ट हो जाते हैं।

आसन का उददेश्य;- कुवलयानंद जी के अनुसार  य़ौगिक क्रियाओं का. उद्देश्य: मात्र शारीरिक लाभ प्राप्त करना नहीं बल्कि आध्यात्मिक शक्तियों को जाग्रत करन है। शारीरिक लाभ इसका छोटाउद्देश्य है। आध्यात्मिक लाभ का  भी होना आवश्यक है क्योंकि आसन एक सूक्ष्म विज्ञान है।”

(2) प्राणायाम- प्राणायाम दो शब्दों से मिलकर बना है-प्राण+आयाम यहाँ प्राण = जीवनी शक्ति, आयाम = विस्तार करना, धारण करना, नियंत्रण करना। प्राणों का विस्तार करना ही प्राणायाम है। जिस प्रकार स्वास्थ्य की वृद्धि के लिए व्यायाम का विशेष महत्त्व है, उसी प्रकार प्राणशक्तिकी वृद्धि के लिए प्राणायाम आवश्यक है। प्राणों  के व्यायाम को ही प्राणायाम कहते हैं।
”प्राण और अपान की साम्यावस्था ही प्राणायाम है।”
जीवनी शक्ति को रोकना और प्राण शक्ति का विस्तार करना ही प्राणायाम है।”

प्राणायाम का सिद्धांत – इसमें तीन प्रक्रियाएँ होती हैं –
(1) पूरक, (2) कुंभक, (3) रेचक
पूरक अर्थात श्वास लेना, कुंभक अर्थात श्वास रोकना तथा रेचक अर्थात श्वास छोड़ना। प्राणायाम मेंहृत्रिबंध लगाया जाता है। प्राणायाम की क्रिया में पूरक, रेचक, कंभक का एक निश्चित अनुपात होता है। हठप्रदीपिका एवं घेरण्ड संहिता में प्राणायाम को आठ (8) भागों में बाँटा गया है जिसे ‘अष्टकुंभक’ कहा जाता है। हठयोग में प्राणायाम को “कुंभक कहा जाता है।

(3) बंध एवं मुद्रा – बंध का अर्थ होता है-बाँधना, रोकना या संकुचित करना। इस क्रिया के द्वारा शरीर के किसी अंग विशेष को बाँधकर वहाँ से आने-जाने ( ऊपर-नीचे) वाले संवेदनाओं को रोककर लक्ष्य विशेष की ओर भेजना “बंध’ है।

मानसिक एवं आध्यात्मिक लाभ प्राप्त करने के लिए बंधों का विशेष महत्त्व है स्वात्माराम जी ने कुंभक की अवधि में बंध को अनिवार्य माना है। बंधों में आंतरिक अंगों की मालिश होती है। रक्त का जमाव दूर होता है। यह अंग विशेष से संबंधित नाड़ियों के कार्यों को नियमित करता हैं। परिणामत: शारीरिक कार्य एवं स्वास्थ्य में उन्नति होती है।

बंध तीन प्रकार के होते हैं –
(1) जालंधर बंध, (2) उडि्डयान बंध, (3) मूल बंध।
शरीर की किसी भाव-भंगिमा को मुद्रा कहते हैं। मुद्रा शब्द मुद्र’ धातु से बना है जिसका अर्थ आनंद होता है। राघव भट्ट के अनुसार तद्‌-दर्शनेन देवता हर्षोत्पत्ति:’ अर्थात मुद्रा-प्रदर्शन से देवता प्रसन्न होते हैं।
आसन की वह विशेष स्थिति जिसमें प्राणायाम सम्मिलित हो या नहीं हो परंतु जो कंडलिनी शक्तिको जाग्रत करने में सहायक हो, उसे मुद्रा कहते हैं।

मुद्रा दो प्रकार की होती है –
(1) हस्त मुद्रा (2) योगी मुद्रा।

हठप्रदीषिका में 10 प्रकार की मुद्राओं का वर्णन है-
(1) महामुद्रा, (2) महा बंध, (3 ) महा वेध, (4) खेचरी, (5) उडि्डयान, (6 ) मूल बंध (7) जालंधर बंध, (8) विपरीत करणी, (9) वज्रोली, (10) शक्ति चालिनी।

(4) नादानुसंधान – यह तीन शब्दों से मिलकर बना है-नाद + अनु + संधान = नादानुसंधान।

ना = अंतर्ध्वनि।
अनु = अनुसरण या पीछे-पीछे।
संधान = सतर्कता या पूर्ण चैतन्यता कें साथ लग जाना।
इस प्रकार नादानुसंधान का अर्थ हुआ अंतर्ध्वनि के पीछे-पीछे पूर्ण चैतन्यता से लग जाना या लय हो जाना ही नादानुसंधान है। भगवान श्री आदिनाथ के द्वारा बताए गए लययोग में नादानुसंधान मुख्य है। मन को लय कर देने के लिए नादानसंधान सर्वोत्तम प्रक्रिया है। नादानुसंधान की चार अवस्थाएँ होती हैं –

(1) आरंभावस्था – ब्रह्मग्रंथि का भेदन होता है।
(2) घटावस्था – विष्णु ग्रंथि का भेदन होता है।
(3) परिचयावस्था – रुद्र ग्रंथि का भेदन होता है।
(4) निष्पत्ति अवस्था – सहस्त्रार का द्वार खुल जाता है।

वीणा को झंकार सुनाई पड़ती है। उसी ध्वनि में लय कर देना ही नादानुसंधान है! महर्षि स्वात्माराम सूरी जी ने योग की विभिन्‍न प्रक्रियाओं को अपने “हठप्रदीपिका ‘ में संग्रहीत किया है, जिसमें आसन, प्राणायाम, मुद्रा, बंध तथा नादानुसंधान प्रमुख हैं। साधना में आगे बढ़ने वाले साधक को किस प्रकार की पद्धतियों को अपनाना चाहिए तथा वह उसे कैसे अपने जीवन में उतार सकता है इसका वर्णन इसमें विस्तार से दिया गया है। अत: स्पष्ट है कि यह साधक को साधना पथ में आगे बढ़ाने में सहायक सिद्ध होगी।

घेरण्ड संहिता के अनुसार सप्तांग योग की जानकारी इन हिंदी

घेरण्ड संहिता: इस ग्रंथ का नाम घेरण्ड संहिता है, जिसके रचयिता महर्षि घेरण्ड हैं। इन्होंने अपने ग्रंथ में हठयोग की संपूर्ण जानकारी दी है। इनके अनुसार शरीर की शुद्धि के लिए, क्रिया (21 प्रकार), आसन (32 प्रकार) , मुद्रा (25 प्रकार), प्रत्याहार (5 प्रकार), प्राणायाम (8 प्रकार), ध्यान (3 प्रकार)  समाधि (6 प्रकार) बताई है। इसकी वर्तमान युग में अति आवश्यकता है। इसे अपनाकर व्यक्ति निरोगी हो सकता है तब आनंदपूर्वक अपने कार्य को कर समाजनिष्ठ, राष्ट्रिष्ठ बना रह सकता है।

घेरण्ड संहिता के सप्तांग योग : घेरण्ड संहिता के सात अंग हैं जिसे सप्तांग योग भी कहते हैं। इसे शरीर शुद्धि के साधन के नाम से भी जानते हैं। घटस्थ योग के अभ्यास के लिए सात गुणों का होना आवश्यक है और इन सात गुणों के समावेश के लिए सात प्रकार के योगाभ्यास आवश्यक हैं। इन सात साधनों का वर्णन घेरण्ड संहिता में किया गया है जो निम्न है –
शोधनं दृढ़ता चैव स्थैर्यं धैर्यं च लाघवम्‌।
प्रत्यक्षं च निर्लिप्तं च घटस्य सप्तसाधनम्‌॥

शरीर की शुद्धि के लिए ये सात साधन हैं-
(1) शोधन (शुद्धि क्रिया)   –    2 प्रकार
(2) दृढ़ता (आसन)         –    32 प्रकार
(3) स्थैर्य (मुद्रा)            –    25 प्रकार
(4) धैर्य ( प्रत्याहार )       –   5 प्रकार
(5) लाघवं (प्राणायाम)      –   8 प्रकार
(6) प्रत्यक्ष ( ध्यान)        –   3 प्रकार
(7) निर्लिप्तं (समाधि)      –  6 प्रकार

(1) शोधन – घेरण्ड संहिता में शुद्धि क्रिया पर काफी बल दिया गया है। शोधन शरीर और मन को विकार रहित बनाने के लिए अत्यंत आवश्यक है। ये 21 प्रकार की होती हैं। इसके बारे में घेरण्ड मुनि ने घेरण्ड संहिता में 1/12 श्लोक में बताया है –
धौतिर्वस्तिस्तथा नेति लौलिकीत त्राटकं तथा।
कपालभातिश्चैतानि कपालभातिश्चैतानि षट्कर्माणि सपाचरेत्‌॥

धौति, वस्ति, नेति, लौलिकी, और कपालभाति – इन छ: कर्मों का आचरण योगी के लिए आवश्यक है। इन्हें षट्कर्म कहते है। इनमें नेति के  के अंतर्गत नाक की सफाई है।

1. धौति –पेट की ऊपरी भाग की  सफाई है।

2. वस्ति – आँतो की सफाई है, जिससे हमारे शारीरिक विकार दूर हो सकते है।

3. नौलि –पेट, गुर्दे, इत्यादि का व्यायाम है।

4. कपालभाति – प्राणायाम का एक प्रकार और त्राटक – मानसिक एकाग्रता की एक विधि है। शरीर शुद्धि की इन विधयों को महर्षि घेरण्ड ने योग का पहला आयाम माना है।

(2) दृढ़ता- दृढ़ता का संबंध आसान में है।’ आसनेन भवेददृढम्‌’ अर्थात आसनों से शारीरिक दृढ़ता की  प्राप्त करती है, लेकिन एक बात याद रखने योग्य है कि आसन से शारीरिक बल की  प्राप्ति का अर्थ माँसपेशीय बल की प्राप्ति नहीं है।

यहाँ पर दृढ़ता या बल का अर्थ होता है – शारीरिक क्षमता, आंतरिक बल और इसके साथ-साथ स्वास्थ्य की प्राप्ति, क्योंकि व्यक्ति भीमकाय और हृष्ट-पुष्ट होने के बावजूद भी रोगों के प्रभाव में आ जाता है, उसको स्वास्थ्य की प्राप्त नहीं होती। यहाँ पर यह शुद्धिकरण के पश्चात आसन द्वारा शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य और बल की प्राप्ति से सूक्ष्म संबंध रखता है।
घेरण्ड संहिता में आसन 32 प्रकार के बताए गए हैं, जो निम्न हैं –

(1) सिद्धासन, (2) पद्मासन, (3) भद्रासन,(4) मुक्तासन, (5) वज्रासन, (6) स्वस्तिकासन, (7) सिंहासन, (8) गोमुखासन, (9) वीरासन, (10) धनुरासन, (11) मृतासन, (12) गुप्तासन, (13) मत्स्यासन, (14) मत्स्येंद्रासन, (15) गोरक्षासन, (16) पश्चिमोत्तानासन, (17) उत्कट आसन, (18) संकट आसन, (19) मयूरासन, (20) कुक्कुटासन, (21) कूर्मासन, (22) उत्तान कूमार्सन, (23) मंडुकासन, (24) उत्तानमंडुकासन, (25) वृक्षासन, (26) गरुड़ासन,  (27) व्रजासन, (28) श्लभासन, (29) मकरासन, (30) उष्ट्रासन, (31) भुजंगासन, (32) योगासन।

(3) स्थैर्य – तीसरा साधन स्थिरता है जिसका संबंध मुद्रा से होता है। मुद्राएँ 25 प्रकार होती है।
                                       मुद्रया स्थिरता चैव।
मुद्रा के अभ्यास द्वारा स्थिरता की प्राप्ति होती है तथा मन और प्राण की चंचलता समाप्त हो जाती है। मुद्राओं को विभिन्न शारीरिक अवस्थाओं के रूप में समझा जा सकता है। इनके द्वारा हम प्राण शक्तिको पुन: केंद्रित करने में सक्षम होते हैं, अर्थात प्राण के दबाव को अंतर्मुखी करते हैं। इसके अभ्यास से मन शीघ्रता से केंद्रित तथा अंतर्मुखी हो जाता है।

(4) धैर्य – चौथा साधन धैर्य है। ‘ प्रत्याहारेण धीरता’ अर्थात प्रत्याहार के अभ्यास से धैर्य को प्राप्त किया जाता है। प्रत्याहार के अभ्यास में सबसे पहले अपने आपको केंद्रित करनों, अंतर्मुखी बनाना और इंद्रियों से अलग करना सीखते हैं। यह पाँच प्रकार के होते हैं –
(1) चक्षुरिंद्रिय, (2) श्रवणेंद्रिय, (3) प्राणेद्रिय, (4) जननेंद्रिय, (5) रसेंद्रिय
इस प्रकार प्रत्याहार के अभ्यास से बाह्य इंद्रियों के द्वारा प्राप्त अनुभव कम होते जाते हैं और मन भीतर केंद्रित होने लगता है। अत: यहाँ धीरता का अर्थ है-मन को इंद्रियों से हटाकर मानसिक धैर्य स्थापित करना। जब तक मन इंद्रियों से जुड़ा हुआ और चंचल  है, तब तक धैर्य की प्राप्ति नहीं होती है।

(5) लाघव – यह लक्ष्य प्राप्ति का पाँचवाँ साधन है, जिसे प्राणायाम कहते हैं।
                                 प्राणायामाल्लाघवं च।
1. प्राणायाम के द्वारा हलकेपन की प्राप्ति होती है, स्थूलता को कम किया जाता है।
2. प्राणायाम साधन योग का एक विशेष अंग है और अष्टांग योग का चौथा अंग है।
3. प्राणायाम में प्राण का निरोध एवं प्राण का नियमन किया जाता है।
4. प्राणायाम की क्रिया में श्वास-प्रश्वास की क्रिया को क्रमबद्ध, तालबद्ध और लयबद्ध बनाया जाता है और साँस लेने की साधारण सी अनवरत प्रक्रिया की अव्यवस्था दूर करके उसे व्यवस्था के बंधनों में बाँधा जाता है।
5. प्राणायाम एक ऐसा साधन है जिससे व्यक्ति को गरमी में पसीना नहीं निकलता। कारण यह कि प्राणायाम के अभ्यास से शरीर के तापमान को कम कर देते हैं। कुछ ऐसे भी प्राणायाम हैं जिससे शरीर का तापमान बढ़ा लेते हैं और ठंडी में भी उन्हें ठंड नहीं लगती है। इस प्रकार प्राणायाम के द्वारा व्यक्ति अपनी शारीरिक स्थूलता को कम करता है। अपने शरीर को हल्का बनाता है।

(6) प्रत्यक्ष – प्रत्यक्ष अर्थात ध्यान।
              ध्यानात्प्रत्यक्षमात्मन:।
ध्यान के द्वारा आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। ध्यान तीन प्रकार के बताए जाते हैं-
(1) स्थूल ध्यान, (2) ज्योति ध्यान, (3) सूक्ष्म ध्यान।

स्थूल ध्यान से 100 गुना उत्तम ज्योति ध्यान, ज्योति ध्यान से लाख गुना उत्तम सूक्ष्म ध्यान है। ध्याने के द्वारा सूक्ष्म मन के अनुभवों को स्पष्ट किया जाता है। यह तो सर्वविदित है कि जैसे-जैसे हम अपने भीतर सूक्ष्म अनुभवों को जानने में सक्षम होते जाते हैं हम अंतर्मुखी होते हैं। यह आत्म साक्षात्कार की अवस्था है। आत्म साक्षात्कार का तात्पर्य यहाँ पर सीधा ईश्वर से नहीं, वरन स्वयं के अनुसंधान से है। ध्यान अपने आपको पहचानने को प्रक्रिया है। स्वयं का साक्षात्कार होना, स्वयं को जानना ध्यान के द्वारा ही संभव है।

(7) निर्लिप्त –समाधिना निर्लिप्तं च।

समाधि द्वारा निर्लिप्त अवस्था की प्राप्ति होती है। निर्लिप्त का अर्थ है- किसी में लिप्त न होना अर्थात शरीर को भूलकर मन को परमात्मा में लगा देना समाधि है।
हमारा पूरा जीविन भौतिक विषय वस्तुओं में लिप्त  रहता है। कर्मों, सिद्धातों एवं विचार धाराओं में लिप्त रहता है। इसी कारण हमारी दृष्टि संकीर्ण एवं सीमित रहती है किंतु समाधि की स्थिति तब प्राप्त होती है जब हम चेतना के सभी आयामों को, अवस्थाओं को जान लेते हैं, पहचान लेते है।

यह अंतिम अवस्था होती है, अंतर्जाग्रति की, जिसमें हम अपने कर्मों मे लिप्त नहीं होते। समाधि द्वारा इस निर्लिप्त अवस्था और फिर मुक्ति की प्राप्ति होती है, इसमें कोई संदेह नहीं है। समाधि छः प्रकार की होती है। यह समाधि मुद्रा और प्राणायाम के आधार पर बनाई गई है और इसके द्वारा मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है –
(1) शांभवी समाधि, (2) भ्रामरी समाधि, (3) खेचरी समाधि, (4) योनिमुद्रा समाधि, (5) भक्तियोग समाधि, (6) मनोमूर्छा समाधि।

योग द्वारा शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक लाभ प्राप्त करने के लिए यह योग ग्रंथ अत्यंत उपयोगी है। इस ग्रंथ में बताए गए सप्त साधनों को यदि पूर्ण श्रद्धा भाव से अभ्यास किया जाए तो योग पथ पर ऊँचाई को पाया जा सकता है, शरीर शोधन कर मानसिक एकाग्रता प्राप्त कर मनुष्य अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।
अत: हम कह सकते हैं कि घेरण्ड संहिता एक ऐसा व्यावहारिक ग्रंथ है, जिस पर चलकर या अपनाकर मोक्ष या अपने लक्ष्य की प्राप्ति होती है।

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अजितेश कुँवर, कुँवर योगा, देहरादून के संस्थापक हैं। भारत में एक लोकप्रिय योग संस्थान, हम उन उम्मीदवारों को योग प्रशिक्षण और प्रमाणन प्रदान करते हैं जो योग को करियर के रूप में लेना चाहते हैं। जो लोग योग सीखना चाहते हैं और जो इसे सिखाना चाहते हैं उनके लिए हमारे पास अलग-अलग प्रशिक्षण कार्यक्रम हैं। हमारे साथ काम करने वाले योग शिक्षकों के पास न केवल वर्षों का अनुभव है बल्कि उन्हें योग से संबंधित सभी पहलुओं का ज्ञान भी है। हम, कुँवर योग, विन्यास योग और हठ योग के लिए प्रशिक्षण प्रदान करते हैं, हम योग के इच्छुक लोगों को इस तरह से प्रशिक्षित करना सुनिश्चित कर सकते हैं कि वे दूसरों को योग सिखाने के लिए बेहतर पेशेवर बन सकें। हमारे शिक्षक बहुत विनम्र हैं, वे आपको योग विज्ञान से संबंधित ज्ञान देने के साथ-साथ इस प्राचीन भारतीय विज्ञान को सही तरीके से सीखने में मदद कर सकते हैं।

 

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Mr. Ajitesh Kunwar Founder of Kunwar Yoga – he is registered RYT-500 Hour and E-RYT-200 Hour Yoga Teacher in Yoga Alliance USA. He have Completed also Yoga Diploma in Rishikesh, India.

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