नाद योग का अर्थ, परिभाषा एवं नाद योग क्या है इन हिंदी

नाद क्या है एवं परिचय – संपूर्ण ब्रह्मांडीय चेतना का उद्गम स्थल या स्रोत कहाँ है? इसकी तलाश करते हुए हमारे समग्र तत्त्वदर्शो ऋषि अपने गहन अनुसंधान के माध्यम से इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि ये समस्त हलचलें जिस आधार पर चलती हैं वह शक्ति स्रोत नाद ही है।
अचिंत्य, अगम्य, अगोचर ब्रह्म को जगत चेतना के साथ अपना स्वरूप निर्धारित करने के लिए शब्द ब्रह्म के रूप में प्रकट होना पड़ा, सृष्टि पूर्व यहाँ कुछ नहीं था, कुछ नहीं से सब कुछ उत्पन्न होने का प्रथम चरण शब्द ब्रह्म था। उसी को नाद ब्रह्म कहते हैं।
उसके अस्तित्व एवं प्रभाव का परिचय प्राप्त करना सर्वप्रथम शब्द के रूप में ही संभव हो सका। यह विश्व अनंत प्रकाश के गर्भ में पलने वाला और उसकी गोद में खेलने वाला बालक है।

आरंभिक हलचल शब्द रूप में हुई होगी, इस कल्पना को अब मान्यता के रूप में स्वीकार कर लिया गया है। आकाश की तन्मात्रा शब्द है, शब्द और आकाश का पारस्परिक घनिष्ठ संबंध है, स्थूल आकाश ईश्वर के रूप में जाना जाता है। ध्वनि प्रवाह भी उसे कहते हैं, प्रकाश भी भौतिक जगत की एक बड़ी शक्ति है, विद्युत चुंबक आंदि का नंबर इसके बाद आता है। शक्ति का प्रथम खोत ध्वनि है, ध्वनि से प्रकाश के संयोग-वियोग से तत्त्वों, प्रवाहों एवं चेतनाओं का उद्भव, सृष्टि का आधार कारण इसी प्रकार समझा जा सकता है।

नाद योग सूक्ष्म शब्द प्रवाह को सुनने की क्षमता विकसित करने का साधना विधान है, कानों के बाहरी छेद बंद कर देने पर उनमें स्थूल शब्दों का प्रवेश रुक जाता है, तब ईश्वर से चल रहे ध्वनि कंपनों को उस नीरवता में सुन समझ सकना सरल हो जाता है।

>शब्द अर्थात नाद को ब्रह्म कहा गया है-‘शब्द ब्रह्म परब्रह्म मागेम्पां शश्वती तनु ‘।शब्द ब्रह्म और परब्रह्म यह दोनों ही भगवान के नित्य और चिन्मय शरीर हैं। योग जीवन को सही रूप से समझने की कोशिश है, हमने अब तक जीवन को ठीक से नहीं समझा है, वस्तुतः हम भ्रम में हैं।

इसको सही-सही समझना ही योग है, अर्थात जो जैसा है उसको उसी रूप में देखना, अनुभव करना ही योग है। इस बात का आभास या अनुभव कराने के लिए योग ने कई साधनाएँ आविष्कृत की। तरह-तरह की साधनाएँ सत्य को जानने के उपाय हैं। हठयोग की साधनाएँ इड़ा, पिंगला एवं प्राणचित्त को सम करके चेतना को ऊपर खींचने का प्रयास करती हैं। राजयोग की साधनाएँ अंतःकरण की वृत्तियों को शांत कर समाधि में प्रवेश कराती हैं। इसी प्रकार भक्तियोग, कर्मयोग और ज्ञानयोग अपनी अलग-अलग साधनाओं से मानव जीवन की अतल गहराइयों में प्रवेश कर सुषुप्त शक्तियों को जगाती हैं और अपने स्वरूप में अवस्थापित कराती हैं।

आत्मज्ञानी मनीषियों ने कई तरह की साधनाएँ और उनके अनेक तरीकों को विकसित किया ताकि हर तरह के व्यक्तित्व का उत्थान हो सके, हर मनुष्य की विचार-भावना और संरचना-संस्कार अलग-अलग हैं, इसी कारण से ग्रहण समीकरण एवं अभिव्यक्ति भी अलग-अलग हैं, यही कारण है कि एक सत्य को प्रतिपादित करने के लिए अनेक दर्शन हैं, एक ही साक्ष्य के लिए अनेक साधनाएँ हैं, मजे की बात यह है कि व्यक्ति अपने स्वभाव से प्रेरित होकर वैसी साधना में रुचि लेने लगता है, भारतीय दर्शन एवं धर्म ने हर तरह की संभावनाओं को खोल रखा है। ताकि जो व्यक्ति जिस स्तर, स्वभाव, प्रकृति एवं रुचि का हो, वैसी साधना चुन सकता है। किसी भी साधना में मौलिक मतभेद नहीं है, तरीका अलग हो सकता है।

कलांतर में जहाँ साधना के तरीकों में व्यावहारिक अंतर तथा समयानुकूल परिवर्तन होता जाता है। वहीं कई साधनाएँ अपने लक्ष्य से विभ्रमित होकर कुछ विशिष्ट सिद्धियों तक सीमित रह जाती हैं।
सभी ज्ञात साधनाओं में नाद साधना का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह अत्यंत उच्चस्तरीय साधना है जो परमात्म तत्त्व में लय होने का सहज, सरल एवं सुगम मार्ग है। लगभग हर एक साधना शास्त्र में इसका उल्लेख और प्रशंसा मुक्त कंठ से की गई है।

आत्मोत्थान के लिए हमारे वेद शास्त्रों में जितने भी उपायों का प्रतिपादन किया गया है, उनमें नादयोग को उत्कृष्ट की संज्ञा दी गई है। क्योंकि मन की स्थिरता के लिए यह उपयोगी साधन सिद्ध हुआ है, योग और तांत्रिक सभी प्रकार की साधनाओं में इसका उच्च स्थान है। नाद, ब्रह्म ब्रह्मांड में संव्याप्त अनहत ओंकार नाद का अपने अंदर साक्षात्कार कराने का ज्ञान विज्ञान समझा जाता है। अतः प्रस्तुत अध्याय में आप इसके बारे में पूर्ण जानकारी प्राप्त कर सकेंगे।

नाद

नादयोग का अर्थ –
नादयोग का योग शास्त्रों में विशेष वर्णन है, नाद ब्रह्म से संगीत उपजा, सात स्वरों का आविर्भाव हुआ। सात लोक भी यही हैं, यह सारा नादयोग से ही आविर्भूत हुआ है। नादयोग का मोटा अर्थ गायन, वादन, संगीत व कीर्तन है, प्रवचन परामर्श के साथ इसका भी संयोग रहता है। यह सामान्य तथा पारिवारिक है। कथा कीर्तन इसी आधार पर संभव होते हैं। नाद ब्रह्म कीअंतिम सीमा ॐकार ध्वनि की सुनाई पड़ती है, उसे उपनिषद्कारों ने उद्‌गीथ विद्या कहा है, मध्यकालीन संत संप्रदाय के लोग उसे सुरत योग कहते रहे हैं,संप्रदायों में इसकी प्रमुखता है।

कबीर पंथ में भी साधना का लक्ष्य इसी को माना गया है। इस विराट ब्रह्मांड में नाद ब्रह्म अर्थात ॐ कार की ध्वनि गुंजित है। सृष्टि के आदि में घड़ियाल में मोंगरी कौ चोट मारने पर उत्पन्न होने वाली झनझनाहट की तरह ॐकार नाद हुआ था। उसी के कारण ताप, प्रकाश और ध्वनि का आविर्भाव हुआ। तदुपरांत अनेक शक्तियाँ गतिशील हुईं और उनकी हलचलों से विभिन्‍न शब्द होने लगे। जिस माध्यम से हम प्रकृति के गूढ़ रहस्यों को जानने का प्रयास करते हैं वह नाद ही है।

पं० श्रीराम शर्मा के अनुसार, “प्रकृति के रहस्यों-हलचलों एवं संभावनाओं को जानने के लिए नाद योग का अभ्यास किया जाता है।”
कर्ण कुहर बंद कर लेने पर कई प्रकार की ध्वनियाँ सुनाई पड़ती हैं, झींगुर बोलने, बादल गरजने, शंख बजने, वंशी निनाद होने जैसे कितने ही शब्द आरंभ में सुनाई पड़ते हैं और नादयोग का अभ्यासी उन ध्वनियों के सहारे यह जानने की चेष्टा करता है कि अलग जगत में कया हो रहा है और क्या होने जा रहा है। इसका ज्ञान ही “नादानुसंधान’ है।

नादयोग की परिभाषा –
ब्रह्मबिंदोपनिषद्‌’ में नाद साधक को बेदज की संज्ञा दी गई है और शब्द को ब्रह्म कहा गया है, क्योंकि ईश्वर और जीव को एक श्रृंखला में बांधने का काम शब्द द्वारा ही होता है। ब्रह्मलोक से हमारे लिए ईश्वरीय शब्द प्रवाह सदैव प्रवाहित होता है।
डॉ० संपूर्णानंद के अनुसार-”इस जगत में पंचीकृत महाभूत काम कर रहे हैं, उनके एक-एक अणु में कंपन है। उस कंपन से यह जगत शब्दायमान हो रहा है।”

जहाँ कंपन है, वहाँ शब्द है, सूक्ष्मभूत अपंचीकृत है पर उनके परमाणुओं में भी कंपन है और उस कंपन से एक सूक्ष्म शब्द राशि उत्पन्न होती है जो साधक को अनाहत शब्द प्रतीत होता है। कबीर ने कहा है -“तत्त्व झंकार ब्रह्म्माही’।

उस शब्द राशि का नाम अनाहत नाद है। पीछे के महात्माओं के शब्दों में भी अनहद नाद है। जिस समय तक इस अनाहत नाद को साधक नहीं सुन पाता तब तक उसका अभ्यास कच्चा है। पुनः कबीर के शब्दों में ‘जोग जगा अनहद धुनि सुनिके’।

जब योगी को अनाहत सुन पड़ने लगा तब इसका अर्थ यह है कि योगी का धीरे-धीरे अंतर्जगत में प्रवेश होने लगा, वह अपने भूले हुए स्वरूप को कुछ-कुछ पहचानने लगा। शिव और शक्ति का संयोग और पारस्परिक संबंध ही नाद कहलाता है। इसे अव्यक्त ध्वनि और अचल अक्षर मात्र भी कहा जाता है। मध्यम वाणी को नाद की संज्ञा दी जाती है। नवनादो की समष्टि को भास्कर राय ने मध्यमा कहा है, यह परा वाणी की तरह न तो अत्यंत सूक्ष्म है और न बेखरी की तरह अत्यंत स्थूल, इसलिए इसे मध्यमा कहते हैं।

नाद को सदाशिव कहा जाता है-
बिंदुरीवर नादस्तस्याश्चिमिमत्रं रूपं।
पुरुषाख्यम्‌ जमचिदशः।

बिंदु ईश्वर का नाद है, उससे निजित चित्‌ स्वयं पुरुष नाम वाला उचित का अंश है। तंत्रशास्त्र के अनुसार-” प्राणात्मक उच्चारण से जो एक अव्यक्त ध्वनि निकलती है उसी को अनाहत नाद कहा जाता है। इसका कर्ता कोई नहीं है। यह नाद हर प्राणी के हृदय में अपने आप ध्वनित होता रहता है। ”

नाद योग साधना एवं नादानुसंधान के प्रकार, अवस्था, लक्षण हिंदी

नाद योग साधना के प्रकार –
(1) आहत नाद
(2) अनाहत नाद
आहत नाद और अनाहत नाद की अत्यंत सूक्ष्म प्रवाह श्रृंखला को नादयोग के आधार पर ही अनुभव में लाया जाता है।

(1) आहत नाद – किसी चीज के टकराने से जो आबाज उत्पन्न होती है सामान्यत: उसे आहत नाद कहते हैं।
आहत नाद को आठ भागों में विभक्त किया गया है –
(1) घोष (2) राग (3) स्वन (4) शब्द (5) स्फुट (6) ध्वनि (7) झंकार (8) ध्वंकृति

(2) अनाहत नाद – अनाहत की चर्चा महाशब्द के नाम से की गई है। इन्हें स्थूल कर्णद्रिय नहीं सुन पाती, वरन ध्यान धारणा द्वारा अंतःचेतना में ही इनकी अनुभूति होती शब्द प्रमुखत: नौ माने जाते हैं –
(1) संहारक की पायजेब की झंकार सी (2) पालक की सागर की लहर सी (3) सृजन की मृदंग सी (4) सहस्रदल कमल की शख सी (5) चिदानंदमंडल की मुरली-सी (अ) (6) सच्चिदानंद मंडल की बीन सी (7) अखंड अर्द्धमात्रा की सिंह गर्जन सी (8) अगम मंडल की नीरी-सी (9) अलखमंडल की बुलबुल-सी।

>संगीत रत्नाकर में नाद को 22 श्रुतियों में विभक्त किया गया है। ये श्रुतियाँ कान से अनुभव की जाने वाली विशिष्ट शक्तियाँ हैं। इनका प्रभाव मानवी काया और चेतना पर होता है। इन 22 शब्द श्रुतियों के नाम हैं –
(1) तीक्रा (2) कुमद्ठति (3) मंदा (4) छंदोवती (5) दयावती (6) रंजनी (7) रतिका (8) रौद्री (9) क्रोधा (10) बज़िका (11) प्रसारिणी (12) प्रीति (13) मार्जनी (14) क्षिति (15) रक्ता (16) संदीपिनी (17) अलापिनी (18) मदंती (19) रोहिणी (20) रम्या (21) उग्रा (22) क्षोभिणी।
इन 22 ध्वनि शक्तियों को ब्रह्म स्वरों के साथ संबद्ध किया गया है। शिव पुराण में ॐकार के अतिरिक्त नौ ध्वनियाँ इस प्रकार गिनाई गई हैं-
(1) घोष (2) कांस्य थाली की झनझनाहट (3) श्रृंग (4) घंटा (5) वीणा (6) वंशी (7) दुदानि (8) शंख (9) मेघ गर्जन।

समुद्र गर्जन जैसा ढोल, कांसे की थाली पर चोट लगाने जैसी झनझनाहट, भंग अर्थात तुरही बजने जैसी आवाज, घंटी बजने जैसी, वीणा बजने जैसी, कांज वंशी जैसी, दुंदुभि नगाड़े के समान ध्वनियाँ सुनाई पड़ती हैं। अनहद नाद का शुद्ध रूप है प्रताहत नाद। ‘ आहत’ नाद बे होते हैं, जो किसी प्रेरणा या आघात से उत्पन्न होते हैं।
वाणी के आकाश तत्त्व से टकराने अथवा किन्हीं दो वस्तुओं के टकराने वाले शब्द ‘ आहत” कहे जाते हैं, बिना किसी आघात के दिव्य प्रकृति के अंतराल से जो ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं; उन्हें ‘ अनाहत’ या ‘अनहद ‘ कहते हैं। इस शब्द को सुनने की साधना को ‘सुख’ कहते हैं, अनहद नाद एक बिना नाद की दैवी संदेश-प्रणाली है।

हठप्रदीपिका के अनुसार नादानुसंधान के प्रकार, अवस्था –

आरम्भश्च घटशएचैव तथा परिचयोठपि च।
मिष्पत्ति: सर्वयोगेषु स्थादवस्थाचतुष्टयम्‌॥ – हप्रदीपिका

सभी योगों में आरंभावस्था, घटावस्था, परिचयावस्था और निष्पत्ति अवस्था ये चार तरह की अव्स्थाएँ होती हैं।
(1) आरंभावस्था – अआरंभावस्था में ब्रह्म ग्रंथ के भेदन के फलस्वरूप आनंद का अनुभव होता तथा शरीर अर्थात अंतः शरीर में शून्य संभूत असाधारण झण-झण रूप अनाहत शब्द सुनाई पड़ता है, (तब वह) योगी दिव्य देह वाला, ओजस्वी, दिव्य गंधवाला, अरोगी, प्रसन्‍नचेतस्‌ एवं शन्यचारी हो जाता है।

(2) घटावस्था – दूसरी अर्थात घटावस्था में योगी के आसन में दृढ़ होने पर विष्णु ग्रंथि के भेदन से (जब) निबद्ध वायु का सुषुम्ना में संचार होता है तब अतिशून्य अर्थात कपाल कुहर में परमानंद का सूचक ‘भ्रेरी’ (एक प्रकार का वाद्ययंत्र) एवं आघात जन्य (जैसे) शब्द सुनाई पड़ते हैं। तब योगी ज्ञानी एवं देवतुल्य हो जाता है।

(3) परिचयावस्था – तशतीय अवस्था में उस भूमध्याकाश में ढोल की ध्वनि जैसा नाद सुनाई देता है और तब प्राण सभी सिद्धियाँ प्रदान करने वाले महाशून्य (अंतराकाश) में पहुँचता है।

चित्तानन्दं तदा जित्वा सहजानन्दसम्भव:।
दोषदुःखजराव्याधिक्षुधानिद्राविवर्जित:॥

>तब चित्तवृत्ति के आनंदानुभव से ऊपर उठकर दोष, दुःख, जरा, व्याधि, क्षुधा, निद्रा आदि से रहित सहजानंद (परमानंद) की स्थिति प्राप्त होती है।

(4) निष्पत्यावस्था – निष्पत्ति अवस्था में जब वायु रुद्र ग्रंथि का भेदन कर आज्ञाचक्र स्थित शिव के स्थान में पहुँचता है, तब (साधक को) अच्छी तरह मिलाए हुए स्वर वाले वीणा का झंकृत शब्द सुनायी पड़ता है।
तब चित्त सर्वथा एकांग्र होकर समाधि संज्ञषक बनता है और तब योगी सृष्टि संहार कर्त्ता ईश्वर के समान हो जाता है। आहत नाद्‌ और अनाहत नाद की अत्यंत सूक्ष्म प्रवाह श्रृंखला को नादयोग के आधार पर अनुभव में लाया जाता है।
जिनकी आत्मिक शवित जितनी ऊँची होगी वे उतने ही सूक्ष्म शब्दों को सुनेंगे।

प्रकृति में संव्याप्त इन सूक्ष्म हलचलों को भली-भाँति समझने की क्षमता भारतीय अंतरंग में विद्यमान है, दृश्य रूप में इन हलचलों को देख सकने में समर्थ बताने वाली साधना को अनाहत योग कहते है। स्तर साधना प्रकारांतर से नाद ब्रह्म की वैसी ही आराधना है जैसी ब्रह्म विद्या के अंतर्गत अद्ठैत ब्रह्म चिंतन की।
जिस प्रकार अनेक रेडियो-स्टेशनों से एक ही समय में अनेक प्रोग्राम ब्रॉडकास्ट होते रहते हैं वैसे ही अनेक प्रकार के अनाहत शब्द भी प्रस्फुटित होते रहते हैं। उनके कारण, उपयोग और रहस्य अनेक प्रकार के हैं। चौसठ अनाहत अब तक गिने गए हैं पर उन्हें सुनना हर किसी के लिए संभव नहीं।

नाद योग साधना का महत्व, पद्धतियाँ स्वरूप एवं नाद योग के लाभ

>नाद योग साधना का स्वरूप – नाद के विराट रूप का वर्णन करते हुए स्वामी नयनानंद सरस्वती ने लिखा है-”विराट में जितने मंडल है उनमें से दस मंडलों के शब्द भी जारी किए हैं। इन मंडलों में प्रत्येक मंडल अपना एक शब्द रखता है, विराट में कुछ 36 मंडल हैं और वे सब अपना-अपना एक-एक शब्द रखते हैं।” परंतु केवल दस का शब्द प्रकट स्वर में चालू है और शेष 26 मंडलों के शब्द स्वर रूप से गुप्त आवाज में चालू रहते है।

उपर्युक्त 36 मंडल अलग-अलग अपना रंग-रूप-शब्द और अधिकार रखते है। उन सब की अर्द्ध मात्राएँ अलग हैं। उनके बीज यानी शिव भी अलग-अलग हैं। प्रत्येक मंडल से जो सूत्र यहाँ आता है वह स्वर या शब्द के रूप में ही होता है। इस राज नामक बाद्य यंत्र में जो 36 तार होते हैं, वे 36 मंजिल के स्मारक हैं और 36 प्रकार के अनाहत नाद के द्योतक हैं, दस प्रकार के अनहद को कान से सुना जाता है बाकी 26 प्रकार का अनहद जो स्वर रूप हैं–केवल अनुभव के कान से सुनायी पड़ता है।

नाद योग साधना की पद्धतियाँ – अभ्यास के लिए ऐसा स्थान निर्धारित कीजिए जो एकांत हो और जहाँ बाहर की अधिक आवाज न आती हो। तीक्षण प्रकाश इस अभ्यास में बाधक है। इसलिए कोई अँधेरी कोठरी ढूँढ़नी चाहिए। एक पहर रात हो जाने के बाद से लेकर सूर्योदय से पूर्व तक का समय इसके लिए बहुत ही अच्छा है। यदि इस समय कौ व्यवस्था न हो सके तो प्रातः 7 बजे तक और शाम को दिन छिपने के बाद का कोई समय नियत किया जा सकता है। नित्य नियमित समय पर अभ्यास करना चाहिए, अपने नियत कमरे में आसन या आराम कुर्सी बिछाकर बैठें। आसन पर बैठें तो पीठ के पीछे कोई मसन्द या कपड़े की गठरी आदि रख लें। यह भी न हो तो अपना आसन एक कोने में लगायें। जिस प्रकार शरीर को आराम मिले, उस तरह बैठ जायें और अपने शरीर को ढीला छोड़ने का प्रयत्न करें।

भावना करें कि हमारा शरीर रुई का ढेर मात्र है और हम इस समय इसे पूरी तरह स्वतंत्र छोड़ रहें है। थोड़ी देर में शरीर बिलकुल ढीला हो जाएगा और अपना भार अपने आप न सहकर इधर-उधर को झूलने लगेगा। आराम कुसी, मसरन्‍्द या दौवार का सहारा ले लेने से शरीर ठीक प्रकार अपने स्थान पर बना रहेगा। साफ रुई की मुलायम सी दो डाटें बनाकर उन्हें कानों में लगाओ कि बाहर की कोई आबाज भीतर प्रवेश न कर सके।

>अंगुलियों से कान के छेद बंद करके भी काम चल सकता है। अब बाहर को कोई आवाज हमें सुनाई न पड़ेगी, यदि सुनाथी पड़े भी तो उस ओर से ध्यान हटाकर अपने मूर्धा-स्थान पर ले जायें और वहाँ जो शब्द हो रहे हैं, उन्हें ध्यानपूर्वक सुनने का प्रयत्न करें।

आरंभ में शायद कुछ भी सुनाई न पड़े पर दो-चार दिन के प्रयत्न के बाद जैसे-जैसे सूक्ष्म कर्णद्रिय निर्मल होती जाएगी, वैसे ही बैसे शब्दों की स्पष्टता बढ़ती जाएगी। पहले-पहल कई शब्द सुनाई देते हैं, शरीर में जो रक्त प्रवाह हो रहा है, उसकी आवाज रेल की तरह धक-धक सुनाई, पड़ती है। वायु के आने-जाने की आवाज बादल गरजने जैसी होती है, रसों के पकने और उनके आगे की ओर गति करने की आवाज चटकने की सी होती है। यह तीन प्रकार के शब्द शरीर की क्रियाओं द्वारा उत्पन्न होते हैं, इसी प्रकार दो प्रकार के शब्द मानसिक क्रियाओं के हैं।

मन में चंचलता की लहरें उठती हैं। वे मानस-तंतुओं पर टकराकर ऐसे शब्द बनाती हैं, मानो टीन के ऊपर मेघ बरस रहा हो और जब मस्तिष्क ब्रह्म ज्ञान को ग्रहण करके अपने में धारण करता है तो ऐसा मालूम होता है, मानो कोई प्राणी साँस ले रहा हो। ये पाँचों शब्द शरीर और मन के हैं। कुछ ही दिन के अभ्यास से साधारणत: दो-तीन सप्ताह के प्रयत्न से ये शब्द स्पष्ट रूप से सुनाई पड़ते हैं। इन शब्दों के सुनने से सूक्ष्म इंद्रियाँ निर्मल होती जाती हैं और गुप्त शक़्तियों को ग्रहण करने की उनकी योग्यता बढ़ती जाती है।

जब नोद श्रवण करने की योग्यता बढ़ती जाती है, तो वंशी या सीटी से मिलती-जुलती अनेक च्रकार की शब्दावलियाँ सुनाई पड़ती हैं, यह सूक्ष्म लोक में होने वाली क्रियाओं की परिचायक है। बहुत दिनों से बिछुड़े हुए बच्चे को यदि उसकी माता की गोद में पहुँचाया जाता है, तो वह आनंद विभोर हो जाता है, ऐसा ही आनंद सुनने वाले को आता है।

जिन सूक्ष्म शब्द घ्वनियों को आज वह सुन रहा है, वास्तव हू यह उसी कं निकट से आ रही हैं, जहाँ से कि आत्मा और परमात्मा का विलगाव हुआ और जहाँ पहुँच कर दोनों फिर एक हो सकते हैं। धीरे-धीरे ये शब्द स्पष्ट होने लगते हैं और अभ्यासी को उनके सुनने में अदभुत आनंद आने लगता है। कभी-कभी तो वह उन शब्दों में मस्त होकर आनंद से विहल हो जाता है और अपने तन-मन की सुध भूल जाता है। अंतिम शब्द है, यह बहुत ही सूक्ष्म है। इसकी ध्वनि घंटा ध्वनि के समान रहती है। घड़ियाल में हथौड़ी मार देने पर जैसे वह कुछ देर तक झनझनाती रहती है, उसी प्रकार ॐ का घंटा शब्द सुनाई पड़ता है।

ॐ कार ध्वनि सुनाई पड़ने लगती है, तो निद्रा-तंद्रा या बेहोशी जैसी दशा उत्पन्न होने लगती है। साधक तन-मन की सुध भूल जाता है और समाधि सुख या तुरीय अवस्था का आनई लेने लगता है। उस स्थिति से ऊपर बढ़ने वाली आत्मा परमात्मा में प्रवेश करती जाती है और अंततः पूर्णतया परमात्म अवस्था को प्राप्त कर लेती है।

‘आहत’ नाद वे होते हैं, जो किसी प्रेरणा या आघात से उत्पन्न होते हैं। वाणी के आकाश तत्त्व से टकराने अथवा किन्हीं दो वस्तुओं के टकराने से होने वाले शब्द’ आहत ‘ कहे जाते हैं। बिना किसी आधघात के दिव्य प्रकृति के अंतराल से जो ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं अनाहत या अनहद कहते वे अनाहत या अनहद शब्द प्रमुखतः दस होते हैं जिनके नाम (1) संहारक, (2) पालक, (3) सृजक, (4) सहस्त्रदल, (5) आनंद मंडल, (6) चिदानंद, (7) सच्चिदानंद, (8) अखंड, (9) अगम, (10) अलख हैं। इनकी ध्वनियाँ क्रमश: पायजेब की झंकार की, सागर की लहर की, मृदंग व शंख की, तुरही की, बीन की, सिंह गर्जन की, नीरी कौ, बुलबुल की-सी होती हैं।

यह अनहद सूक्ष्म लोकों की दिव्य भावना है। सूक्ष्म जगत किसी स्थान पर क्या हो रहा है, किसी प्रयोजन के लिए कहाँ क्या आयोजन हो रहा है, इस प्रकार के गुप्त रहस्यमय शब्दों द्वारा जाने जा सकते हैं। कौन साधक, किस ध्वनि को अधिक स्पष्ट और किस ध्वनि को मंद सुनेगा वह उसकी अपनी मनोभूमि की विशेषता पर निर्भर है।

अनहद नाद एक बिना तार की देवी संदेश प्रणाली है। साधक से जानकर सब कुछ जान सकता है। इन शब्दों में, ॐ ध्वनि आत्म कल्याणकारक और शेष ध्वनियाँ विभिन्‍न प्रकार की सिद्धियों की जननी हैं, इस पुस्तक में उनका विस्तृत वर्णन नहीं हो सकता। जागरण के लिए जितनी जानकारी की आवश्यकता है, वह इन पृष्ठों पर दे दी गई है।

नाद योग साधना का महत्व –
वैज्ञानिकों का कथन है कि शब्द शक्ति से इलेक्ट्रोमैग्नेटिक लहरें उत्पन्न होती हैं, जो स्नायु प्रवाह पर वॉँछित प्रभाव डालकर उनकी सक्रियता ही नहीं बढ़ाती वरन चिंतन को रोकती व मनोविकार मिटाती हैं। एक अन्य निष्कर्ष के अनुसार संसार के पचास व्यक्ति यदि एक साथ एक शब्द का तीन घंटे तक उच्चारण करें तो उससे छः हजार खरब वाट विद्युत शक्ति पैदा होगी। सारे विश्व में इससे घंटों तक प्रकाश किया जा सकता है। विश्ष्टि बात यह है कि पृथ्वी जिसका चुंबकतत्व 0.5 गॉस है, हमेशा 0.01 से 100 से साइकल्स प्रति सेकंड की गति से स्पंदन छोड़ती रहती है।

इन चुंबकीय धाराओं को ‘इमैन्श रेजोनेन्स’ कहा जाता है, इसकी गति साढ़े सात सेकंड है। शंकराचार्य ने भी नाद योग का महत्त्व बताया है –

सदा शिवोक्तानि सपादलक्ष-लयावधामानि वसंति लोके।
नादानुसंधान, समाधिमेक॑, मन्यामहे मान्यरमं लयानाम्‌॥

भगवान शिव ने मन के लय के लिए सवा लक्ष साधनों का निर्देश किया है परंतु उन सब में नादानुसंधान सुलभ और श्रेष्ठ है।
“कुंडलिनी जागरण’ और ‘नादयोग’ का परस्पर घनिष्ठ संबंध बताते हुए कहा गया है-

कला कुंडलिनी चैव नाद शक्तिसमन्विता
‘कला कुंडलिनी नाद शक्ति से संयुक्त है।

न नादेन बिना जान न नादेन विना शिवः।
नादरूपं पर ज्योतिर्नाद रूपी परो हरि:॥

>नाद के बिना ज्ञान नहीं होता, नाद के बिना शिव नहीं मिलते, नाद के बिना ज्योति का दर्शन संभव नहीं है, नाद ही परब्रह्म है।

सर्वचित्तां परित्यन्य सावधानेने चेतसा।
नाद एवानुसंधेयो योग साम्राज्यमिच्छता॥

>सब चिंताएँ छोड़कर मन को स्थिर करके नाद योग की साधना में लगना चाहिए। यह योग साधनाओं का सम्राट है।

नाद मेदानुसंदध्यान्नादे चित्त विलीयते।
नादासक्तं सदा चित्तं विषयं नदि कांक्षति॥
नादानुसंधान से चित्त शांत हो जाता है, उस साधना में लगा हुआ चित्त विषयों की आकांक्षा नहीं करता।

नाद योग साधना के लाभ –
पंच-तत्त्वों से प्रतिध्वनित हुई ॐ कार की स्वर लहरियों को सुनने की नाद योग-साधना कई दृष्टियों से बड़ी महत्त्वपूर्ण एवं लाभकारी है। प्रथम तो उस दिव्य संगीत को सुनने में उतना आनंद आता है, जितना किसी मधुर से मधुर वाद्य या गायन सुनने में नहीं आता।
दूसरा इस नाद श्रवण से मानसिक तंतुओं का प्रस्फुटन होता है, साँप जब संगीत सुनता है, तो उसकी नाडियों में एक विद्युत लहर ग्रवाहित हो उठती, है, मृग का मस्तिष्क मधुर संगीत सुनकर इतना उत्साहित हो जाता है कि उसे तन-मन की सुध नहीं रहती।

यूरोप में गायें दुहते समय मधुर बाजे बजाए जाते हैं, जिससे उनके स्नायु समूह उत्तेजित हाकर अधिक मात्रा में दूध उत्पन्न करते हैं।

नाद का दिव्य संगीत सुनकर मानव-मस्तिष्क में भी ऐसी स्फुरणा होती है। कक कारण अनेक गुप्त शक्तियाँ विकसित होती हैं, इस प्रकार भौतिक और आत्मिक दोनों ही दिशाओं में प्रगति होती है।

तीसरा लाभ एकाग्रता है। एक वस्तु पर नाद पर ध्यान एकाग्र होने से मन की बिखरी हुई शक्तियाँ एकत्रित होती हैं और इस प्रकार मन को वश में करने तथा निश्चित कार्य पर उसे पूरी तरह दान देने की साधना सफल हो जाती है।

मानव प्राणी अपने सुविस्तृत शरीर में बिखरी हुई अनंत दिव्य शक्तियों का एकीकरण कर ऐसी महान शक्ति उत्पन्न करता है जिसके द्वारा इस संसार को हिलाया जा सकता है और अपने लिए आकाश में मार्ग बनाया जा सकता है।

नाद साधक का इतना आत्मिक उत्थान हो जाता है कि काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि घट्‌ रिपु उस पर कोई प्रभाव नहीं दिखा सकते। आक्रमण करना तो इनका स्वभाव है, परंतु नाद साधक पर यह विजय प्राप्त नहीं कर सकते। वह सदा इनसे अप्रभावित ही रहता है। इसलिए दिनों-दिन उसकी शक्तियों का विकास होता चलता है। नाद साधना से अंतिम सीढ़ी तक पहुँचना संभव है।

शब्द शक्ति की सबसे बड़ी सामर्थ्य है, वातावरण का संशोधन। वातावरण जिसमें हम रहते हैं, चेतनात्मक है। उसका संबंध प्राण-प्रवाह के स्तर से है। ऐसी मान्यता है कि सतयुग में ऐसा अदृश्य प्राण प्रवाह चलता था जिससे व्यक्तियों की भावना, मान्यता प्रभावित होती थी। इसी कारण उनके गुण, कर्म – स्वभाव में उत्कृष्टता भरी होती थी, चिंतन, चरित्र और व्यवहार में आदर्शवादिता का समावेश रहता था।

इन दिनों बढ़ती विषाक्तता एवं उससे वायु मंडल तथा वातावरण दोनों के ही प्रभावित होने की बड़ी चर्चा है। इसका गंभीर पर्यवेक्षण करें तो ज्ञात होता है कि इसका मूल कारण प्रचलन-प्रवाह तक ही नहीं है।

वस्तुत: विद्युत प्रकाश और ताप की तरह ध्वनि शब्द शक्ति भी प्रकृत्ति की एक विश्ष्टि शक्ति है। इसमें सृजनात्मक एवं ध्वंसात्मक दोनों ही क्षमताएँ विद्यमान हैं। मधुर स्वर लहरियों के रूप में इसमें जहाँ मनुष्यों सहित समस्त प्राणियों एवं वनस्पतियों के पोषण अभिवर्द्धन की सामर्थ्य सन्तिहित है, वहीं अदृश्य एवं अश्रव्य ध्वनियों के प्रयोग से विनाशकारी दृश्य भी उपस्थित किए जा सकते हैं।

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अजितेश कुँवर, कुँवर योगा, देहरादून के संस्थापक हैं। भारत में एक लोकप्रिय योग संस्थान, हम उन उम्मीदवारों को योग प्रशिक्षण और प्रमाणन प्रदान करते हैं जो योग को करियर के रूप में लेना चाहते हैं। जो लोग योग सीखना चाहते हैं और जो इसे सिखाना चाहते हैं उनके लिए हमारे पास अलग-अलग प्रशिक्षण कार्यक्रम हैं। हमारे साथ काम करने वाले योग शिक्षकों के पास न केवल वर्षों का अनुभव है बल्कि उन्हें योग से संबंधित सभी पहलुओं का ज्ञान भी है। हम, कुँवर योग, विन्यास योग और हठ योग के लिए प्रशिक्षण प्रदान करते हैं, हम योग के इच्छुक लोगों को इस तरह से प्रशिक्षित करना सुनिश्चित कर सकते हैं कि वे दूसरों को योग सिखाने के लिए बेहतर पेशेवर बन सकें। हमारे शिक्षक बहुत विनम्र हैं, वे आपको योग विज्ञान से संबंधित ज्ञान देने के साथ-साथ इस प्राचीन भारतीय विज्ञान को सही तरीके से सीखने में मदद कर सकते हैं।

 

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Mr. Ajitesh Kunwar Founder of Kunwar Yoga – he is registered RYT-500 Hour and E-RYT-200 Hour Yoga Teacher in Yoga Alliance USA. He have Completed also Yoga Diploma in Rishikesh, India.

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