नाड़ी का अर्थ एवं नाड़ी के प्रकार षट्चक्र क्या है इन हिंदी

नाड़ियाँ – नाड़ी का अर्थ, विद्युत उत्पादन केंद्र से तारों द्वारा विद्युत उपकेंद्रों को भेजी जाती है फिर ट्रान्सफार्मर के जरिए उसका वोल्टेज घटाकर उसे दूसरे कार्यों में प्रयुक्त किया जाता है। यही सिद्धांत भौतिक शरीर और मन द्वारा ऊर्जा-उत्पादन पर भी लागू होता है। बस अंतर यह है कि बाहर विशेष तारों की सहायता से विद्युत को उपकेंद्रों तक ले जाते हैं परंतु हमारे शरीर के भीतर यह कार्य नाड़ियों द्वारा होता है।

पूरे शरीर में नाड़ियों का जाल बिछा हुआ है, परंतु नाड़ियाँ भौतिक शरीर में नहीं होती हैं। ये सूक्ष्म शरीर में पाई जाती हैं। जो प्राण ऊर्जा को पूरे शरीर में प्रभावित करती हैं। हाल ही में इस नाड़ी-जाल को स्नायुमंडल अथवा तंत्रिकातंत्र के साथ जोड़ा गया है, परंतु योग उपनिषद और बृहदारण्यक उपनिषद् में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि शरीर के नाड़ी जाल की संरचना अत्यंत सूक्ष्म होती है।

षट्चक्रों तथा कुंडलिनी के सिद्धांतों के पीछे नाड़ियों की ही भूमिका है। नाड़ी तथा चक्र का संबंध हमारे स्थूल शरीर से न होकर सूक्ष्म शरीर से है। वैसे इन सबकी साधना पहले स्थूल शरीर के माध्यम से शुरू अवश्य होती है परंतु सिद्धि सूक्ष्म शरीर की रचना एवं पूर्ण विकास की उपस्थिति में ही संभव हो पाती है। अतः जब तक इनके बारे में सूक्ष्म अध्ययन नहीं कर लेंगे तब तक हम सही दिशा में साधना पथ पर चलने में असमर्थ रहेंगे। इनसे संबंधित कई भ्रम भी आपके दूर होंगे। हमें इसकी पूरी आशा है।

नाड़ी का शाब्दिक अर्थ है –नाड़ी का अर्थ है – धारा प्रवाह।
प्राचीन ग्रंथों के अनुसार- आत्मिक शरीर में 72000 नाड़ियाँ हैं। आत्म दृष्टि प्राप्त कर व्यक्ति प्रकाश धाम के रूप में देख सकता है। वर्तमान समय में नाड़ी का रूपांतर नस व तंत्रिका के रूप में किया गया है। यह शब्द उपयुक्त नहीं है क्योंकि नाड़ी की रचना सूक्ष्म तत्वों से होती है और चक्रों की भाँति इनकी स्थिति भौतिक शरीर में नहीं है। मानव शरीर की समस्त आंतरिक गतियों, उद्गेगों, संवेदनाओं, भावनाओं आदि को प्रवाहित करने का काम ये नाड़ियाँ ही करती हैं। नाड़ियाँ वे सूक्ष्म नलिकाएँ हैं जिससे प्राण शक्तियों का प्रवाह होता है।

नाड़ियों की संख्या –हमारे सूक्ष्म शरीर में स्थित नाड़ी-जाल इतना विस्तृत है कि योग विषयक ग्रंथों में उसकी संख्या की गणना में भी मतभेद पाया जाता है। वसिष्ठ संहिता में 72000 नाड़ियों का उल्लेख मिलता है। शिव संहिता में साढ़े तीन
लाख नाड़ियों का वर्णन मिलता है।

षट्चक्र क्या है | नाड़ी एवं षट्चक्र के प्रकार इन हिंदी

प्रमुख नाड़ियाँ –किसी भी विद्युतीय धारामंडल के विद्युत-परिचालन के लिए तीन तारों की आवश्यकता पड़ती है; जिन्हें धनात्मक, ऋणात्मक तथा तटस्थ अथवा उदासीन कहते हैं। ठीक इसी प्रकार हमारे शरीर में भी ऊर्जा-संचार की व्यवस्था पाई जाती है। यह कार्य तीन विशेष नाड़ियों में से इन तीन नाड़ियों (इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना) को ही मुख्य माना गया है तथा इन सभी नाड़ियों को मिलाकर कुल चौदह नाड़ियाँ प्रमुख हैं जो निम्न हैं-

(1) सुषुम्ना (2) इड़ा (3) पिंगला

(4) गांधारी (5) हस्तिजिहा (6) कूहू

(7) सरस्वती (8) पूषा (9) शंखिनी

(10) पयस्विनी (11) वारुणी (12) अलंबुषा

(13) विश्वोदरा (14) यश्स्विनी ।

तीन प्रमुख नाड़ियाँ हैं जो इस प्रकार हैं –

(1) इड़ा (2) पिंगला (1) सुषुम्ना

नाड़ी

इन तीनों नाड़ियों का वर्णन हम अलग-अलग करेंगे। तीन नाड़ियाँ ही अन्य सभी नाड़ियों तथा शरीर के कार्यों को नियंत्रित करती हैं।

इड़ा नाड़ी – इड़ा बाईं नासिका द्वारा प्रवाहित होती है। इड़ा नाड़ी शीतलता का प्रतीक है। जिसे कई और नामों से जाना जाता है जैसे-चंद्र, शीत, कफ, अपान, रात्रि आदि। आधुनिक विज्ञान के मतानुसार बाईं नासिका का ताप कम होता है और इस तरह यह तथ्य पुरानी यौगिक पद्धति को प्रमाणित करता है। इड़ा चित्त शक्ति का स्रोत है। यह चित्त पूरे शरीर में प्रवाहित होकर अंग-प्रत्यग की क्रिया-प्रक्रिया स्पंदन एवं पूरे स्थूल-सूक्ष्म क्रिया समुदायों का नियंत्रण करते हैं। इड़ा का उद्गम स्थान रीढ़ की हड्डी का अधोभाग मूलाधार चक्र है तथा इसका अंतशीर्ष ‘आज्ञाचक्र’है।

मूलाधार से इड़ा बाईं ओर से बलखाती हुईं बिना किसी को स्पर्श किए स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत और विशुद्धि चक्रों को क्रमश: पार करते हुए अंततः ऊपर आज्ञा चक्र में पहुँचकर विलीन हो जाती है। इड़ा नाड़ी के प्रवाह काल में मस्तिष्क का दायाँ भाग क्रियाशील होता है। इड़ा चंद्र शक्ति या मन शक्ति की प्रवाहिनी होती है। इड़ा, सुषुम्ना की उपनाड़ी है। मूलाधार के बाईं ओर से निकलकर प्रत्येक चक्र में से वक्राकार बहते हुए आज्ञाचक्र के बाईं ओर से इड़ा नाड़ी जाती है। इसका रंग नीला होता है।

(2) पिंगला नाड़ी – पिंगला नाड़ी प्राण शक्ति प्रवाहिनी है। यह धनात्मक प्राण ऊर्जा प्रवाहित करती है तथा इसे सूर्य नाड़ी के नाम से भी जानते हैं क्योंकि इसकी ऊर्जा शरीर में जोश उत्पन्न करती है। अर्थात शरीर को कठोर परिश्रम के लिए तैयार करती है। वह चेतना को बहिर्मुखी भी बनाती है। यह दाईं नासिका द्वारा प्रवाहित होती है। इसका सीधा संबंध हमारे मेरुदंड की दाहिनी ओर स्थित अनुकंपी-नाड़ी संस्थान से होता है।

पिंगला नाड़ी हृदय की धड़कन को तेज करती है तथा शरीर में अतिरिक्त ताप उत्पन्न करती है। इसलिए कहा जाता है कि पिंगला नाड़ी शक्ति तथा ऊष्णता प्रदान कर चित्त को बहिर्मुखी बनाने वाली होती है। पिंगला ऊष्णता की घोतक होती है तथा इसे और कई नामों से जाना जाता है जैसे-सूर्य, ग्रीष्म, पित्त, प्राण, शिव, ब्रह्म, राजस आदि। दाईं नासिका का ताप बाईं नासिका से अधिक होता है और यह पुरानी यौगिक पद्धति को प्रमाणित करता है। पिंगला प्राण शक्ति का स्रोत है।पिंगला का उद्गम मूलाधार चक्र के दाहिने पार्श्व से होता है।

यह भी लहराती हुई तथा हर चक्र को पार करते हुए मेरुदंड के सहारे ऊपर उठती है तथा दाहिने नासिका रंध्र के मूल में जहाँ आज्ञा चक्र है, समाप्त होती है। पिंगला मेरुदंड की दाहिनी ओर के समूचे शरीर को नियंत्रित और नियमित करती है। पिंगला नाड़ी के प्रवाह काल में मस्तिष्क का बायाँ भाग क्रियाशील होता है। पिंगला नाड़ी का रंग लाल बताया जाता है।

सुषुम्ना नाड़ी  इड़ा, पिंगला के अलावा एक और प्रमुख नाड़ी है जिसे सुषुम्ना कहते हैं। प्रमुख नाड़ी है जिसे सुषुम्ना कहते हैं। यह रीढ़ की हड्डी के मध्य से प्रवाहित होती है।यह महत शक्ति को ले जाने वाली नाड़ी है। हम कह सकते हैं कि इड़ा, पिंगला स्थूल शक्ति का निर्माण करती है तथा सुषुम्ना सूक्ष्म शक्ति का निर्माण करती है। सुषुम्ना की शक्ति असीमित है अतः हठयोग का प्रमुख उद्देश्य है इस सीमित शक्ति को असीम शक्ति के साथ जोड़ना।

जब सुषुम्ना जाग्रत होती है तो पूरा मस्तिष्क क्रियाशील हो जाता है। सुषुम्ना की सारी शक्ति जिसे हम कुंडलनी के नाम से जानते हैं मूलाधार में स्थित है। इसका प्रवाह किसी अन्य नाड़ी के द्वारा नहीं होता है। जब इड़ा व पिंगला एक साथ प्रवाहित होती है तब इनका ताप समाप्त हो जाता है तथा प्राण और चेतना का अंतर टूट जाता है।

एक अवस्था समरूप हो जाती है तो कुंडलिनी स्वयं ही सुषुम्ना नाड़ी से उर्ध्वरोहण कर आज्ञा चक्र में पहुँच जाती है। कहा जाता है कि सुषुम्ना तमोगुणी नाड़ी समूहों से संबंधित है। किसी को भी सुषुम्ना को जाग्रत करने से पहले कुंडलिनी जागरण का प्रयास नहीं करना चाहिए। सुषुम्ना नाड़ी का दूसरा नाम ब्रह्मनाड़ी भी है। सुषुम्ना नाड़ी चेतना का केंद्र स्थान है अर्थात समस्त ज्ञानेंद्रियों और कर्मेंद्रियों में चेतना का संचार सुषुम्ना द्वारा ही होता है। इसका रंग चाँदी जैसा होता है। सुषुम्ना में ही मूलाधार से आरंभ होकर आज्ञा चक्र तक छः चक्रों की स्थिति है।

सुषुम्ना नाड़ी को तीन खंडों में विभक्त किया गया है –

(1) केंद्र से मूलाधार चक्र या ब्रह्मग्रंथि तक।

(2) ब्रह्मग्रंथि से विष्णुग्रंथि तक।

(3) बिष्णुग्रंथि से रुद्रग्रंथि तक।

हठयोग के ग्रंथों के अनुसार हमारे शरीर में 72 हजार नाड़ियाँ हैं जो शरीर के विभिन्न क्रिया-कलापों का नियंत्रण एवं नियमन करती हैं। जिसमे इड़ा, पिंगला तथा सुषुम्ना मुख्य नाड़ियाँ मानी गई हैं। इड़ा नाड़ी चंद्र शक्ति की प्रवाहिनी होती है। पिंगला सूर्य शक्ति की प्रवाहिनी होती है तथा सुषुम्ना रीढ़ की हड्डी के मध्य में प्रवाहित होती है। इड़ा नाड़ी के प्रवाह से मस्तिष्क का दायाँ भाग तथा पिंगला क्रियाशील होती है तो मस्तिष्क-का बायाँ भाग काम करने लगता है तथा सुषुम्ना जाग्रत होती है तो पूरा मस्तिष्क क्रियाशील हो जाता है।

षट्चक्रों का परिचय –कुंडलिनी की शक्ति के मूल तक पहुँचने के मार्ग में हैं अथवा यह कहना चाहिए कि छह ताले लगे हुए हैं। यह द्वार या ताले खोलकर ही कोई जीव उन शक्ति – केन्द्रों तक पहुँच सकता है। इन छह अवरोधों को आध्यात्मिक भाषा में षट्चक्र कहते हैं। सुषुम्ना के अंतर्गत रहने वाली तीन नाड़ियों में सबसे भीतर स्थित ब्रह्मनाड़ी से ये छह चक्र संबंधित हैं।

माला के सूत्र में पिरोए हुए कमल पुष्पों से इनकी उपमा दी जाती है। मूलाधार चक्र योनि की सीध में, स्वाधिष्ठान चक्र पेडू की सीध में, मणिपुर चक्र नाभि की सीध में, अनाहत चक्र हृदय की सीध में, विशुद्धी चक्र कंठ की सीध में और आज्ञा चक्र भृकुटि के मध्य में अवस्थित है। उनसे ऊपर सहस्त्रार चक्र है।

सुषुम्ना तथा उसके अंतर्गत रहने वाली चित्रणी आदि नाड़ियाँ इतनी सूक्ष्म है कि उन्हें साधारण नेत्रों से देख सकना कठिन है। फिर उनसे संबंधित यह चक्र तो और भी सूक्ष्म है। किसी शरीर को चीर-फाड़ करते समय इन चक्रों को नस-नाड़ियों की तरह स्पष्ट रूप से नहीं देखा जा सकता, क्योंकि हमारे चर्म -चक्षुओं की शक्ति बहुत ही सीमित है।

शब्द की तरंगें, वायु के परमाणु तथा रोगों के कीटाणु हमें आंखों से दिखाई नहीं पड़ते, तो भी उनके अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता है। इन चक्रों को हठयोगियों ने अपनी योग दृष्टि से देखा है और उनका वैज्ञानिक परीक्षण करके महत्त्वपूर्ण लाभ उठाया है और उनके व्यवस्थित विज्ञान का निर्माण करके योग-मार्ग के पथिकों के लिए उसे उपस्थित किया है।

‘षट्चक्र’ एक प्रकार की सूक्ष्म ग्रन्थियाँ हैं, जो ब्रह्मनाड़ी के मार्ग में बनी हुई हैं। इन चक्र ग्रंथियों में जब साधक अपने ध्यान को केंद्रित करता है, तो उसे वहाँ पर सूक्ष्म स्थिति का बड़ा विचित्र अनुभव होता है। वे ग्रन्थियाँ मोल नहीं होती; वरन उनमें इस प्रकार के कोण निकले होते हैं, जैसे पुष्प में पंखुड़ियाँ होती हैं। इन कोश या पंखुड़ियों को पद्मदल कहते हैं। यह एक प्रकार के तंतु गुच्छक हैं। इन चक्रों के रंग भी विचित्र प्रकार के होते हैं, क्योंकि किसी ग्रंथि में कोई और किसी में

कोई तत्व प्रधान होता है। इस तत्व प्रधानता का उस स्थान के रत पर प्रभाव पड़ता है और उसका रंग बदल जाता है। पृथ्वी तत्व की प्रधानता का मिश्रण होने से गुलाबी, अग्नि से नीला, वायु से शुद्ध लाल और आकाश से धुमैला हो जाता है। यही मिश्रण चक्रों का रंग बदल देता है।

घुन नामक कीड़ा लकड़ी को काटता चलता है, तो उस काटे हुए स्थान की कुछ आकृतियाँ बन जाती हैं। उन चक्रों में होते हुए प्राण वायु आती-जाती है, उसका मार्ग उस ग्रंथि की स्थिति के अनुसार कुछ टेढ़ा-मेढ़ा होता है, इस गति की आकृति कई देवनागरी अक्षरों की आकृति से मिलती है, इसलिए वायुमार्ग चक्रों के अक्षर कहलाते हैं। द्रुतगति से बहती हुई नदी में कुछ विशेष स्थानों में भँवर पड़ जाते हैं। यह पानी के भँवर कहीं उथले, कहीं गहरे, कहीं तिरछे, कहीं गोल-चौकोर हो जाते हैं।

प्राण-वायु का सुषुम्ना प्रवाह इन चक्रों में होकर द्रुतगति से गुजरता है, तो वहाँ एक प्रकार से सूक्ष्म भँवर पड़ते हैँ जिनकी आकृति चतुष्कोण, अर्द्धचंद्राकर, त्रिकोण, षट्कोण, गोलाकार, लिंगाकार तथा पूर्ण चंद्राकार बनती है। अग्नि जब भी जलती है, उसकी लौ ऊपर की ओर उठती है, जो नीचे मोटी और ऊपर पतली होती है। इस प्रकार अव्यवस्थित त्रिकोण-सा बन जाता है। इस प्रकार की विविध आकृतियाँ वायु-प्रवाह से बनती हैं। इन आकृतियों को चक्रों के यंत्र कहते हैं।

शरीर पंचतत्वों का बना हुआ है। इन तत्वों के न्यूनाधिक सम्मिश्रण से विविध अंग- प्रत्यंगों का निर्माण कार्य, उनका संचालन होता है। जिस स्थान में जिस तत्व की जितनी आवश्यकता है, उससे न्यूनाधिक हो जाने पर शरीर रोगग्रस्त हो जाता है। तत्वों का यथा स्थान, यथा मात्रा में होना ही नीरोगिता का चिह् समझा जाता है। चक्रों में भी एक-एक तत्व की प्रधानता रहती है जिस चक्र में जो तत्व प्रधान होता है, वही उसका तत्व कहा जाता है।

ब्रह्म नाड़ी की पोली नली में होकर वायु का अभिगमन होता है, तो चक्रों के सूक्ष्म छिद्रों के आघात से उनमें एक वैसी ध्वनि होती है, जैसी कि वंशी मेँ वायु के प्रवेश होने पर ध्वनि उत्पन्न होती है। हर चक्र के एक सूक्ष्म छिंद्र में वंशी के स्वर छिंद्र की सी प्रतिक्रिया होने के कारण स, र, ग, म जैसे स्वरों की एक विशेष ध्वनि प्रवाहित होती हैं, जो यं, लँ, रँ, वं, हँ, ऊँ, जैसे स्वरों में सुनाई पड़ती है, इसे चक्रों का बीज कहते हैं।

चक्रों में वायु की चाल में अंतर होता है। जैसे वात, पित्त, कर की नाड़ी कपोत, मंडूक, सर्प, कुक्कुट आदि की चाल से चलती है, उस चाल को पहचान कर वैद्य लोग अपना कार्य करते हैं। तत्त्वों के मिश्रण, टेढ़-मेढ़ा मार्ग, भँवर बीज आदि के समन्वय से प्रत्येक चक्र में रक्तभिसंचरण, वायु अभिगमन के संयोग से एक विशेष चाल वहाँ परिलक्षित होती हैं।

यह चाल किसी चक्र में हाथी के समान मंदगामी, किसी में मगर की तरह डुब की मारने वाली, किसी में हिरण की-सी छलाँग मारने वाली, किसी में मेंढ़क की तरह फुदकने वाली होती है, उस चाल को चक्रों का वाहन कहते हैं। इन चक्रों में विविध दैवी शक्तियाँ सन्निहित हैं। उत्पादन, पोषण, संहार, ज्ञान, समृद्धि, बल आदि शक्तियों को देवता विशेषों की शक्तिमाना गया है अथवा यह कहिए कि ये शक्तियाँ ही देवता हैं।

प्रत्येक चक्र में एक पुरुष वर्ग की ऊष्ण वीर्य और एक स्त्री वर्ग की शीत वीर्य शक्ति रहती है, क्योंकि धन और ऋण, अग्नि और सोम दोनों तत्वों के मिले बिना गति और जीव का प्रवाह उत्पन्न नहीं होता, ये शक्तियाँ ही चक्रों के देवी- देवता हैं।पंच तत्वों के अपने – अपने गुण होते हैं। पृथ्वी का गंध, जल का रस, अग्नि का रूप, वायु का स्पर्श और आकाश का गुण शब्द होता है।

चक्रों में तत्वों की प्रधानता के अनुरूप उनके गुण में भी प्रधानता होती है। यही चक्रों के गुण हैं। ये चक्र अपनी सूक्ष्म शक्ति को वैसे तो समस्त शरीर में प्रवाहित करते हैं; पर एक ज्ञनेंद्रिय और एक कर्मेंद्रिय से उनका संबंध विशेष रूप से होता है। संबंधित इन्द्रियों को वे अधिक प्रभावित करते हैं। चक्रों के जागरण के चिह्न उन इन्द्रियों पर तुरंत परिलक्षित होते हैं। इसी संबंध विशेष के कारण वे इंद्रियाँ चक्रों की इंद्रियाँ कहलाती हैं।

देव शक्तियों में डाकिनी, राकिनी, शकिनी, हाकिनी आदि विचित्र नामों को सुनकर उनके भूतनी, चुड़ैल, मशनी जैसी कोई चीज होने का भ्रम होता है, वस्तुतः बात ऐसी नहीं है। मुख से लेकर नाभि तक चक्राकार ‘अ’ से लेकर ‘ह’ तक के समस्त अक्षरों की एक ग्रंथि माला है, उस माला दानें को मातृकाय कहते हैं। इन मातृकाओं के योग- दर्शन द्वारा ही ऋषियों ने देवनागरी वर्णमाला के अक्षरों की रचना की है।

चक्रों के देव जिन मातृकाओं से झंकृत होते हैं, संबद्ध होते है, उन्हें उन देवों को देव शक्ति कहते हैं। ड, र, ल, क, श, के आगे आदि मातृकाओं का बोधक ‘किनी’ शब्द जोड़कर राकिनी, डाकिनी बना दिए गए हैं। यही देव शक्तियाँ हैं। उपर्युक्त परिभाषाओं को समझ लेने के उपरांत प्रत्येक चक्र की निम्न जानकारी को ठीक प्रकार समझ लेना पाठकों के लिए सुगम होगा। अब छहों का परिचय नीचे दिया जाता है।

षट्चक्र के प्रकार –

नाड़ी

मूलाधार चक्र –स्थान-योनि (गुदा के समीप)। वर्ण-लाल। लोक- भू:लोक। दलों के अक्षर-बँ, शं, षं, सँ। तत्त्व – पृथ्वी तत्व। बीज-लँ। वाहन-ऐरावत हाथी। गुण-गंध। देव शक्ति-डाकिनी। यंत्र- चतुष्कोण। ज्ञान्द्रिय-नासिका। कर्मेंद्रिय-गुदा। ध्यान का फल-वक्ता, मनुष्यों में श्रेष्ठ, सर्व विद्याविनोदी, आरोग्य, आनंदचित्त, काव्य और लेखन की सामर्थ्य।

स्वाधिष्ठान चक्र –स्थान-पेडू|दल-छह। वर्ण-सिंदूर। लोक-भुव:। दलों के अक्षर- बँ, भं, मँ, यँ, रँ, लँ। तत्त्व – जल। बीज – वं। बीज का वाहन-मगर|गुण-रस| देव-विष्णु|देव शक्ति-शाकिनी| यंत्र-त्रिकोण। ज्ञानेंद्रिय–रसना। कर्मेद्रिय-लिंग। ध्यान का फल-अहंकारादि विकारों का नाश, श्रेष्ठ योग, मोह-निवृत्ति, रचना शक्ति।

मणिपुर चक्र –स्थान-नाभि। दल-दस। वर्ण-नील। लोक-स्वः। दलों के अक्षर -डंढं, णं, तं, दं, धं, नं, पं, फं। तत्व – अग्नितत्व। बीज-रं। बीज का वाहन-मेंढा । गुण-रूप। देव-वृद्ध। कर्मेंद्रिय-चरण। रुद्र। देव शक्ति-शाकिनी । यन्त्र-त्रिकोण। ज्ञानेंद्रिय – चक्षु। कर्मेन्द्रिय -चरण। ध्यान का फल- संहार और पालन की सामर्थ्य, वचन-सिद्धि।

अनाहत चक्र –स्थान-हृदय। दल-बारह। वर्ण-अरुण। लोक़-महः। दलों के अक्षर-क खं, गं, घं, छं, जं, झं, टं, ठं। तत्व वायु। तत्व बीज -यं । देव शक्ति – काकिनी। यंत्र-षट्कोण। ज्ञानेंद्रिय-त्वचा। कर्मेंद्रिय-हाथ। फल-स्वामित्व, योग सिद्धि, ज्ञान जाग्रति, इंद्रिय जय, परकाया प्रवेश।

विश॒र्द्धि चक्र –स्थान-कंठ। दल-सोलह। वर्ण- धूम्र । लोक-जनः। दलों के अक्षर – ‘अ’ से लेकर ‘अ:’ तक सोलह अक्षर। तत्व-आकाश। तत्व बीज-हं। वाहन-हाथी। गुण – शब्द। देव-पंचमुखी सदाशिव । देव शक्ति- शाकिनी। यंत्र – शून्य (गोलाकार) । ज्ञार्नेद्रिय-कर्ण। कर्मैंद्रिय-पाद । ध्यान फल-चित्त शांति, त्रिकाल दर्शन, दीर्घ जीवन, सर्वहित परायणता ।

आज्ञा चक्र –स्थान-भूमध्य। दल-दो। वर्ण – श्वेत। दलों के अक्षर -हं, क्ष। तत्व-महः तत्व। षट चक्रो में उपयुक्त छ चक्र ही आते है। परन्तु सहस्त्रार या सहस्त्र दल कमल को कोई – कोई लोग सातवाँ शून्य चक्र मानते है। उसका भी वर्णन नीचे किया जाता है।

सहस्त्रार चक्र –स्थान-मस्तक। दल-सहस्र। दलों के अक्षर-अं से क्ष॑ तक की पुनरावृत्तियाँ। लोक -सत्य। तत्व से अतीत। बीज तत्व (:)- विसर्ग। बीज का वाहन-बिंदु। देव-परब्रह्म। देव शक्ति-महाशक्ति। यंत्र-पूर्ण चंद्रवत। प्रकाश-निराकार। ध्यानफल- भक्ति, अमरता, समाधि, समस्त ऋद्धि-सिद्धियों का करतलगत होना।

पाठक जानते हैं कि कुंडलिनी शक्ति का स्रोत है। वह हमारे शरीर का सबसे अधिक समीप चैतन्य स्फुल्लिंग है, उसमें बीज रूप से इतनी रहस्यमय शक्तियाँ गर्भित हैं, जिनकी कल्पना तक नहीं हो सकती। कुंडलिनी शक्ति के इन छह केंद्रों में षट्ट्चक्रों में भी उसका कार्य प्रकाश है। जैसे सौरमंडल में नौ ग्रह हैं, सूर्य उनका केंद्र है और चंद्रमा, मंगल आदि उसमें संबद्ध होने के कारण सूर्य की परिक्रमा करते हैं।

एक बड़ी तिजोरी में जैसे कई छोटे-छोटे अनेक दराज होते हैं, जैसे मधुमक्खी के एक बड़े छत्ते में छोटे-छोटे अनेक छिद्र होते हैं और उसमें भी कुछ मधु भरा रहता है, वैसे ही कुंडलिनी शक्ति जाग पड़ती है। उनका संक्षिप्त-सा संकेत ऊपर चक्रों के ध्यान फल में बताया गया है।

इसे भी पढे – वमन धौति (कुंजल) क्रिया का अर्थ – विधि, लाभ और सावधानियां

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अजितेश कुँवर, कुँवर योगा, देहरादून के संस्थापक हैं। भारत में एक लोकप्रिय योग संस्थान, हम उन उम्मीदवारों को योग प्रशिक्षण और प्रमाणन प्रदान करते हैं जो योग को करियर के रूप में लेना चाहते हैं। जो लोग योग सीखना चाहते हैं और जो इसे सिखाना चाहते हैं उनके लिए हमारे पास अलग-अलग प्रशिक्षण कार्यक्रम हैं। हमारे साथ काम करने वाले योग शिक्षकों के पास न केवल वर्षों का अनुभव है बल्कि उन्हें योग से संबंधित सभी पहलुओं का ज्ञान भी है। हम, कुँवर योग, विन्यास योग और हठ योग के लिए प्रशिक्षण प्रदान करते हैं, हम योग के इच्छुक लोगों को इस तरह से प्रशिक्षित करना सुनिश्चित कर सकते हैं कि वे दूसरों को योग सिखाने के लिए बेहतर पेशेवर बन सकें। हमारे शिक्षक बहुत विनम्र हैं, वे आपको योग विज्ञान से संबंधित ज्ञान देने के साथ-साथ इस प्राचीन भारतीय विज्ञान को सही तरीके से सीखने में मदद कर सकते हैं।

 

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Mr. Ajitesh Kunwar Founder of Kunwar Yoga – he is registered RYT-500 Hour and E-RYT-200 Hour Yoga Teacher in Yoga Alliance USA. He have Completed also Yoga Diploma in Rishikesh, India.

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