अग्निसार धौति – इस क्रिया द्वारा जठराग्नि को तीव्र करके पाचन शक्ति बढ़ाई जाती है। धौति का अर्थ शरीर की अशुद्धियों को धोकर बाहर निकालने की क्रिया है।अग्निसार क्रिया प्राणायाम का एक प्रकार है। “अग्निसार क्रिया” से शरीर के अन्दर अग्नि उत्पन होती है, जो कि शरीर के अन्दर के रोगाणु को भस्म कर देती है। इसे प्लाविनी क्रिया भी कहते हैं।
अग्निसार धौति विधि, लाभ और सावधानियाँ की जानकरी इन हिंदी
अग्निसार धौति की विधि –
यह क्रिया बैठकर या खड़े होकर भी की जा सकती है। बैठकर अभ्यास करना हो तो किसी ध्यानात्मक आसन में रीढ़ की हड्डी सीधी कर हाथ तनी हुई अवस्था में घुटनों पर रखें। कुछ देर के लिए पेट विश्रांत बनाएँ। मुँह खोलकर जीभ बाहर निकालकर ओठों को गोल बनाकर मुह से पूरी वायु को बाहर निकालना है जब तक पेट पूरी तरह खाली न हो जाए। इसके बाद कुम्भक या श्वास लेना बंद, फिर पेट को जल्दी-जल्दी अंदर-बाहर लगभग 15 बार करें। इसके पश्चात शरीर को शिथिल छोड़कर धीरे-धीरे दस-बारह बार श्वास लेना है। इसके बाद पुनः इस अभ्यास को दोहराया जा सकता है। नाभि को रीढ़ की हड्डी में सटाने का प्रयास करें। इस क्रिया से आंतरिक अंगों की मालिश होती है।
शारीरिक प्रभाव –
इस प्रक्रिया में जब पेट बाहर की ओर बढ़ता है तो दबाव कम हो जाता है। जब प्रक्रिया कुशलतापूर्वक की जाती है, तो दबाव -110 से -120 मिमी तक कम हो जाता है। दबाव एक सेकंड के लिए रहता है और फिर -50 से -60 मिमी तक बढ़ जाता है जब मांसपेशियां शिथिल हो जाती हैं, तो दबाव सामान्य हो जाता है और जब पेट सिकुड़ता है तो यह +10 से +20 मिमी तक बढ़ जाता है (संदर्भ: योगमीमांसा खंड 7) , क्रमांक 3. दिसंबर, 1957 ) ,पेट में ये सकारात्मक और नकारात्मक दबाव प्रक्रिया के दौरान होने वाली तेज़ गतिविधियों के साथ बदलते हैं। इस प्रकार, वे पेट के आंतरिक अंगों पर तेजी से कार्य करते हैं। इनके निहितार्थ को समझने के लिए रक्त परिसंचरण प्रक्रिया का ज्ञान होना आवश्यक है।शुद्ध रक्त ले जाने वाली रक्तवाहिकाओं को धमनियां (रोहिणी) कहा जाता है। वे काफी दृढ़ हैं. दबाव के अधिक या बहुत कम होने का उन पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ता है। अशुद्ध रक्त ले जाने वाली वाहिकाओं को शिरा (नीला) कहा जाता है। धमनियों की तुलना में ये नरम और कमजोर होती हैं। कम या अधिक दबाव का असर उन पर तुरंत पड़ता है। अग्निसार प्रक्रिया में जब दबाव नकारात्मक हो जाता है तो वाहिकाएं रक्त को अंदर खींच लेती हैं। जब दबाव नकारात्मक होता है, तो रक्त उस क्षेत्र में चला जाता है, जब दबाव सकारात्मक होता है, तो रक्त आगे की ओर धकेल दिया जाता है। इस प्रकार, अग्निसार की प्रक्रिया में, पेट की तीव्र गति से नकारात्मक और सकारात्मक दबाव पड़ता है, अशुद्ध रक्त को उसी गति से नसों में चूसा जाता है और आगे बढ़ाया जाता है। दबाव के कारण रक्त आगे की ओर बढ़ता है। इन वाहिकाओं में फ्लैप होते हैं ताकि रक्त एक दिशा में बह सके। इससे पेट में रक्त का संचार तेजी से और प्रभावी ढंग से होता है, जिससे इसमें काफी सुधार होता है।उदर गुहा में पेट, छोटी आंत, यकृत, प्लीहा, अग्न्याशय, गुर्दे आदि जैसे महत्वपूर्ण अंग होते हैं। रक्त परिसंचरण में सुधार होता है, साथ ही इन अंगों को शुद्ध रक्त, ऑक्सीजन और आवश्यक खाद्य तत्वों की आपूर्ति होती है, जो अशुद्धियाँ और जहरीले पदार्थ उत्पन्न होते हैं। प्रभावी ढंग से बाहर निकाल दिया जाता है, जिससे इन सभी अंगों की कार्यक्षमता बढ़ जाती है।इस प्रक्रिया का एक और महत्वपूर्ण प्रभाव है. पेट की मांसपेशियाँ अनैच्छिक मांसपेशियों से बनी होती हैं। इन मांसपेशियों को किसी की इच्छा के अनुसार हिलाया-डुलाया नहीं जा सकता। वे अनैच्छिक तंत्रिका तंत्र द्वारा नियंत्रित होते हैं। अत: कोई अपनी इच्छा से पेट का व्यायाम नहीं करा सकता। मांसपेशियों की इच्छापूर्ण गति से अन्य मांसपेशियों की कार्यक्षमता बढ़ाई जा सकती है। हालाँकि, पेट की मांसपेशियों का व्यायाम इस तरह नहीं किया जा सकता है। अग्निसार की प्रक्रिया में चूंकि इन अंगों पर सकारात्मक और नकारात्मक दबाव पड़ता है, इसलिए इनकी कुछ हद तक मालिश भी होती है और गति भी होती है। इससे उनकी कार्यक्षमता बढ़ती है और अधिक पाचक रस भी उत्पन्न होते हैं। इससे पाचन क्रिया बेहतर होती है. योग ग्रंथों में जो वर्णन है कि पेट में अग्नि प्रज्वलित होती है, उसे इस प्रकार अनुभव किया जा सकता है। इसके अलावा, लीवर द्वारा उत्पादित पित्त पाचन प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण पहलू है। चूँकि इस प्रक्रिया से उसका उत्पादन बढ़ता है, भोजन अच्छी तरह और अधिक कुशलता से पचता और आत्मसात होता है। पेट की दूसरी महत्वपूर्ण ग्रंथि अग्न्याशय है। अग्न्याशय इंसुलिन का उत्पादन करता है। इंसुलिन खाद्य पदार्थों में मौजूद चीनी को पचाने में मदद करता है। यदि पर्याप्त इंसुलिन स्रावित नहीं होता है, तो रक्त और मूत्र में शर्करा बढ़ जाती है और कोशिकाएं इससे वंचित हो जाती हैं। यानी मधुमेह से पीड़ित है. इस प्रक्रिया में उत्पन्न सकारात्मक और नकारात्मक दबावों के कारण ग्रंथियों की कार्यक्षमता बढ़ती है, अधिक इंसुलिन का उत्पादन होता है और चीनी ठीक से पच जाती है।
इस विवरण से यह स्पष्ट है कि यह प्रक्रिया पाचन संबंधी शिकायतों, अपच, कब्ज, मधुमेह आदि रोगों के लिए उपयोगी है। हालांकि, किसी को विशेषज्ञ के मार्गदर्शन में इसका अध्ययन और अभ्यास करना चाहिए।
अग्निसार धौति से लाभ –
अग्निसार धौति से होने वाले लाभ इस प्रकार हैं-
(1) यह क्रिया उदरस्थ सभी अंगों की क्रियाशीलता बढ़ाती है।
(2) जठराग्नि एवं पाचन क्रिया तीव्र होती है। पेट में उपस्थित कृमि नष्ट होते हैं।
(3) कब्ज, गैस, यकृत विकार, अपच में लाभदायक है।
(4) मणिपुर चक्र की जाग्रति में सहायक है।
अग्निसार धौति की सावधानियाँ –
अग्निसार धौति में निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए-
(1) प्रात:काल खाली पैंट ही करना चाहिए।
(2) कुशल प्रशिक्षक के मार्गदर्शन में ही करें।
(3) हृदय रोग, पेट में नासूर, हार्निया, दमा आदि से पीड़ित व्यक्ति इसका अभ्यास न करें।
(4) गर्भवती महिला भी इस अभ्यास को न करें।
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