बंध का अर्थ एवं परिभाषा | बंध की सावधानियाँ, लाभ एवं विधि

बंध का अर्थ एवं परिभाषा – बंध शब्द का शब्दिक अर्थ है-बाँधना या कड़ा करना। बंध शारीरिक अभ्यास है परंतु अभ्यासी के संपूर्ण शरीर में व्याप्त विचारों एवं आत्मिक तरंगों में प्रवेश कर ये चक्रों पर सूक्ष्म प्रभाव डालते हैं। बंधों के अभ्यास से शरीर के सूक्ष्म केंद्रों, ग्रंथियों का जागरण होता है। ये ग्रंथियाँ मुख्य रूप से तीन मानी जाती हैं – ब्रह्म ग्रंथि, विष्णु ग्रंथि तथा रुद्र ग्रंथि।

बंध अंतः शारीरिक प्रक्रिया है। इसके अभ्यास के द्वारा व्यक्ति के विभिन्न अंगों तथा नाड़ियों का नियंत्रण संभव होता है। इससे आंतरिक अंगों की मालिश होती है। रक्त का जमाव दूर होता है। यह अंग विशेष से संबंधित नाड़ियों के कार्यों को नियंत्रित करता है। परिणामत: शारीरिक कार्य एवं स्वास्थ्य में उन्नति होती है।

बंध का अर्थ होता है बांधना या संकोच करना। इसके द्वारा शरीर के किसी अंग विशेष का बांधकर वहाँ से आने – जाने वाली संवेदनाओ को रोककर लक्ष्य विशेष की प्राप्ति ही बंध कहलाती है।

बंध में शरीर के कुछ निश्चित अंगो को बड़ी सतर्कता से संकुचित किया जाता है अथवा कसा जाता है। इससे विभिन्न अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ते है। सर्वप्रथम शरीर के विभिन्न अंगो पर नियंत्रण प्राप्त होता है। विभिन्न अंगो, मांसपेशियों, स्नायुओ इत्यादि की मालिश होने से वे उत्प्रेरित होते है और इन पर नियंत्रण इस्थापित होता है।

बंध के अभ्यास के प्राण शक्ति की सूक्ष्म धाराओं को एक विशिष्ट लक्ष्य की और मोड़ा जा सकता है। इनका व्यक्ति के मन ओर सीधा प्रभाव पड़ता है। इससे शरीर और मन शांति प्राप्त करते है और सजगता के उच्य आयामों के प्रति ग्रहणशीलता हो जाते है। इस प्रकार बंध का अभ्यास सध जाने पर विशाल शक्ति का भंडार खुल जाता है।

परंपरागत योग शास्त्र में तीन ग्रंथियों के बारे में बताया गया है-ब्रह्म, विष्णु और रुद्र। ये ग्रंथियाँ इन सूक्ष्म अवरोधों एवं मानसिक समस्याओं को निरूपित करती है जो कि व्यक्तिगत चेतना को ध्यान के क्षेत्रों में ऊँची उड़ान भरने से रोकती है। यदि कोई उच्च सजगता का अनुभव प्राप्त करना चाहे तो पहले इन ग्रंथियों को खोलना होगा। बंध इन ग्रंथियों को खोलने हेतु बहुत प्रभावकारी है। योग की भाषा में इन ग्रंथियों के कारण शरीर के मुख्य प्राणि मार्ग ‘ सुषुम्ना’ में प्राण प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है। जैसे ही ये ग्रंथियाँ खुलती हैं, ‘ सुषुम्ना’ में प्राण प्रवाहित होने लगता है। इससे मन की ग्रहणशीलता बढ़ती है और उच्च अनुभव प्राप्त होने लगते हैं।

उपरोक्त तीनों ग्रंथियाँ शरीर के निम्न भागों पर स्थित हैं –

(1) ब्रह्म ग्रंथि श्रोणि (मूलाधार चक्र)

(2) विष्णु ग्रंथि हृदय (अनाहत चक्र)

(3) रूद्र ग्रंथि मस्तक पर दोनों भौंहों के मध्य (आज्ञा चक्र)

ये ग्रंथियाँ स्थूल शरीर में नहीं, बल्कि सूक्ष्म शरीर में स्थित हैं, परंतु बंधों के अभ्यास द्वारा इन्हें खोला जा सकता है।

अन्य यौगिक अभ्यासों के समान बंध व्यक्ति के व्यक्तित्व के विभिन्न स्तरों पर कार्य कर उन्हें प्रभावित करते हैं। व्यक्ति के भौतिक, प्राणिक और मानसिक स्तरों पर भी बंधों का गहरा प्रभाव पड़ता है।

स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते हैं – ”बंध से संपूर्ण शरीर में व्याप्त विचारों एवं आत्मिक तरंगों में प्रवेश कर यह चक्रों पर सूक्ष्म प्रभाव डालते हैं। सुषुम्ना नाड़ी में प्राण के स्वतंत्र प्रवाह में अवरोध करने वाली ब्रह्मगंथि, विष्णु ग्रंथि तथा रुद्र ग्रंथि इस अभ्यास से खुल जाती है।”

परमहंस निरंजनानंद के अनुसार – बंध का अभ्यास करने से व्यक्ति को एक आत्मपरक अनुभव होता है। वह यह है कि जब हम बंध लगाते हैं तो इसका प्रभाव हमारेमन के क्रिया-कलापों पर पड़ता है। यह मन की एकाग्रता को एक बिंदु पर निर्धारित कर आंतरिक सामंजस्य एवं संतुलन की प्राप्ति में मन की सहायता करता है।”

बंध के अभ्यास वास्तव में स्नायविक अवरोध हैं, जो शरीर और मस्तिष्क के भीतर जितनी तंत्र – तंत्रिकाएँ हैं, उनमें उत्पन्न हो रही इंद्रियगत संवेदनाओं को अवरुद्ध कर देते हैं और आध्यात्मिक संवेदना को जाग्रत करते हैं। आंतरिक अंगों में जहाँ भी संकुचन या प्रसारण की क्रिया होती है; चाहे गरदन में हो चाहे कठ में, चाहे जननेंद्रिय के क्षेत्र में हो या गुदा द्वार के क्षेत्र में, वह आंतरिक अंगों से संबंधित प्रक्रियाओं को बदल देती है, संवेगों को बदल देती है। शरीर को एक अन्य प्रकार की उत्तेजनात्मक या शांत अवस्था में ले जाती है, जिसके कारण आंतरिक स्थिरता का आभास होता है।

बंध के प्रकार उनका अर्थ, विधि, सावधानियाँ एवं लाभ इन हिंदी:

बंध

बंध के प्रकार –मुख्यतः बंध के तीन प्रकार हैं –

(1) मूलबंध
(2) जालंधर बंध
(3) उड्डियान बंध

(1) मूलबंध:
मूल का अर्थ है – जड़’ तथा बंध का अर्थ बाँधना होता है। यहाँ मूल शब्द के अनेक तात्पर्य हो सकते हैं जैसे-मूलाधार चक्र, कुंडलिनी का निवास स्थान, मेरुदंड का आधार या शरीर का धड़ अथवा पेरिनियम इत्यादि।

अधोगतिमपानं वै ऊर्ध्वंगं कुरुते बलातू।
आकुज्चनेन तं प्राहुर्मूलबन्धं॑ हि योगिन:॥

स्वाभाविक रूप से निम्नगामी अपानवायु को (गुदा के) आकुज्चन के द्वारा बलपूर्वक जो ऊपर की ओर ले जाता है, उसे योगियों ने मूलबंध कहा है।

मूल का अर्थ है – नीचे या तल की ओर रहने वाला आधार भूत या आखिरी प्रदेश। बंध का अर्थ है–बाँधना यानि नीचे की ओर रहने वाले प्रदेश को बाँधे रहना ही मूलबंध है।
 मूलबंध की परिभाषा – विद्वानों ने मूलबंध को इस प्रकार परिभाषित किया है –

(1) स्वामी सत्यानंद के अनुसार – “यह अभ्यास मानसिक अवस्था में परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को योग के अंतिम उद्देश्य अर्थात असीम सत्ता की और ले जाता है।”

(2) स्वामी विज्ञानानंद सरस्वती के अनुसार – “यह सभी भूतों का मूल है अर्थात समस्त जगत का अधिष्ठान ब्रह्मा है जिसमें चित्त को बांध दिया जाता है।”

(3) स्वामी क्कुवल्यानंद के अनुसार – ”मूलबंध मुख्यतः गुदा संवरणी पेशियों का प्रबल संकोच करने का अभ्यास है।”

मूलबंध की विधि – सिद्धासन या पद्मासन में बैठिए। दोनों हथेलियों को घुटनों पर रख लें। आँखे बंद कर लें तथा संपूर्ण शरीर को शिथिल बनाएँ। उसके पश्चात लंबी गहरी श्वास लें तत्पश्चात कुभक करें और मूलाधार चक्र के लिए निर्धारित क्षेत्र की मांसपेश्यों को यथासंभव ऊपर की ओर खीचें। इस संकुचन को यथासंभव कायम रखें। इस अवस्था में श्वास रोकने की क्षमता जितनी हो उतनी देर स्थिर रहिए। तत्पश्चात स्नायुओं को ढीला करके संकुचन को भी ढीला कर दें। अब धीरे-धीरे रेचक क्रिया कीजिए अर्थात धीरे-धीरे श्वास छोड़िए।

मूलबंध में ध्यान – बंध लगाते समय ध्यान श्वास पर केंद्रित रहनी चाहिए और जब बंध लग जाए तो मूलाधार पिंड में संकुचन स्थल पर सजगता रहनी चाहिए।

मूलबंध से लाभ – मूलबंध से शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक स्तर पर अनेक लाभ होते हैं –

(1) यह अभ्यास प्रजनन एवं मल-मूत्र उत्सर्जन तंत्र को स्वस्थ बनाता है।

(2) आँत क्रमाकुंचन भी उद्दीप्त हो जाता है, जिससे कब्ज एवं बवासीर दूर हो जाते हैं।

(3) दमा, ब्रोकाइटिस तथा गठिया के रोगियों के लिए बहुत उपयोगी हैं।

(4) मूलबंध ब्रह्मचर्य पालन में सहायक है।

(5) यह यौन रोगों के उपचार का अच्छा साधन है।

(6) मूलबंध से मूलाधार चक्र प्रभावित होता है।

(7) मेरुदंड के निचले हिस्से से निकलने वाली तथा वहाँ समाप्त होने वाली सभी नाड़ियाँ प्रभावित होती हैं जिसका पूरे शरीर पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

(8) आचार्य पं० श्रीराम शर्मा के अनुसार, ”वीर्य का अध: प्रवाह रुककर स्थिरता आती है, प्राण की अधोगति रुककर ऊर्थ्व॑गति प्राप्त होती है, आँतें बलवान होती हैं, मलावरोध नहीं होता।

रक्त संचार की गति ठीक रहती है। अपान एवं कर्म दोनों प्राणों पर मूलबंध का प्रभाव पड़ता है। वे जिन तंतुओं में बिखरे एवं फैले रहते हैं उनका संकुचन होने से यह बिखरापन एक केंद्र में एकत्रित होने लगता है।

मूलबंध की सावधानी – खूनी बवासीर एवं अत्यधिक कब्ज से पीड़ित व्यक्ति न करें, भगंदर से पीड़ित व्यक्ति भी ने करें।

(2) जालंधर बंध:

जालंधर बंध का अर्थ – योग परंपरा में जालंधर बंध का उद्गम इस प्रकार माना गया है – यह तीन शब्दों से मिलकर बना है जिसका अर्थ है –

जाल – ग्रीवागत नाड़ियों का समूह
धर – ऊपर की तरफ खिंचाव
बंध – अर्थात बाँधना।

शरीर से मस्तिष्क एवं मस्तिष्क से शरीर में जाने वाली नाड़ियों के ग्रीवा के पास के समूह को ऊपर खींचकर बाँध देना जालंधर बंध कहलाता है।

आचार्य पं० श्रीराम शर्मा के अनुसार – ”मस्तक को झुकाकर कंठकूप (कंठ में पसलियों के जोड़ पर जो गड्ढा है उसे कंठकूप कहते हैं) में लगाने को जालंधर बंध कहते हैं।”

जालंधर बंध की विधि – किसी ध्यानात्मक आसन में बैठकर कमर तथा गरदन को सीधा रखते हैं। हाथ ज्ञान मुद्रा या चिन् मुद्रा में रखकर आँखें बंदकर संपूर्ण शरीर को शिथिल करते हैं। इसके बाद धीरे-धीरे दोनों नथुनों से श्वास खींचते हैं और अंदर रोककर सिर-गरदन को झुकाते हुए ठोड़ी को कंठकाप में लगाते हैं, हाथों को सीधा रखते हैं। ध्यान रहे पीठ सीधी रहेगी झुकेगी नहीं। कंधों को थोड़ा ऊँचा उठा लेते हैं। यथाशक्ति कुंभक करने के बाद धीरे- धीरे सिर को उठाते हैं एवं धीरे-धीरे श्वास छोड़ते हैं। श्वास के सामान्य होने पर पुनः यह क्रिया दोहराते हैं।

जालंधर बंध में ध्यान – इसमें ध्यान विशुद्धि चक्र का करते हैं।

जालंधर बंध से लाभ – जालंधर बंध से निम्नलिखित लाभ होते हैं –

(1) इससे थॉयराइड-पैराथॉयराइड ग्रंथियाँ प्रभावित होती हैं तथा ढंग से कार्य करती हैं।
(2) जालंधर बंध से श्वास-प्रश्वास क्रिया पर अधिकार प्राप्त होता है।
(3) ज्ञान तंतु बलवान होते हैं।

जालंधर बंध की सावधानियाँ –
1. गरदन दर्द, हंदय रोगी तथा उच्च रक्तचाप के रोगी न करें। अंतः मस्तिष्क के दबाव में चक्कर आने वाले रोगी न करें।
2. इसे करने के लिए लिए प्राणायाम का अभ्यास होना जरूरी है तभी पूरा लाभ हो सकता है। घुटन का अनुभव होने पर अभ्यास रोक दें तथा विश्राम करें।

(3) उड्डियान बंध:

उड्डियान बंध का अर्थ –उडिडयान शब्द का अर्थ होता हैं-ऊपर उठाना या उड़ाना। इसमें हम मध्य पेट और उदर को वक्ष की तरफ ऊपर खींचते हैं तथा यह प्राण के उर्ध्वगामी उड़ान में सहायक होता है इसलिए इसका नाम उडिडियान बंध पड़ा
नाभि के उदर को पीठ की ओर सिकोड़ें जिसके परिणामस्वरूप प्राण ऊपर उठता है। इसे उडिडियान बंध कहते हैं।

आचार्य पं० श्रीराम शर्मा के अनुसार – ”पेट में स्थित आँतों को ऊपर खींचने की क्रिया को उड्डियान बंध कहते है।’ किसी ने कहा है जो बंध प्राण को सुघुम्ना की ओर ले जाता है उसे उडिडियान बंध कहते हैं।

उड्डियान बंध की विधि – इसे खड़े होकर तथा बैठकर दो तरह से किया जाता है। बैठकर करने के लिए किसी ध्यानात्मक आसन में बैठते हैं। हथेलियाँ घुटने पर शरीर को स्थिर रखते हुए श्वास लेते हैं और तेजी से श्वास छोड़कर पेट को जितना हो सके ऊपर की ओर खींच कर पीठ में चिपका देना चाहिए। अंतिम स्थिति में दोनों पसलियाँ निकली हुई दिखाई देती हैं, पेट पूरा अंदर की तरफ होता है। जितना देर रोक सकें उतनी देर रोकें, फिर धीरे-धीरे छोड़ दें। इसके साथ जालंधर बंध भी करते हैं।

खड़े होकर करने के लिए पैरों के बीच एक फीट का जगह लेते हैं, पूरे शरीर को ढीला करते हैं, फिर धीरे-धीरे साँस खींचते हैं और फिर झटके से श्वास छोड़ते हुए थोड़ा सा आगे झुकते हैं, दोनो हथेलियाँ घुटने के ऊपर जँघा पर रखते हैं और पेट को पहले की तरह अंदर खींचते हैं और सामर्थ्य अनुसार रोककर फिर छोड़ देते हैं।

उड्डियान बंध में ध्यान – इसमें नाभिचक्र का ध्यान करते हैं।

उड्डियान बंध से लाभ – उडिडियान बंध के अभ्यास से निम्नलिखित लाभ होते हैं –

(1) इससे संपूर्ण पाचन तंत्र प्रभावित होता है। सभी पाचन विकार अपच, मंदाग्नि, कब्ज आदि इससे दूर हो जाते हैं तथा पाचन क्रियां अच्छी हो जाती है।

पं० श्रीराम शर्मा इसके लाभों को बताते हुए कहते हैं – जीवनी शक्ति को बढ़ाकर दीर्घायु तक जीवन स्थिर रखने का लाभ उडिडयान बंध से मिलता है। आँतों की निष्क्रियता दूर होती है। अंत्रपुच्छ,जलोदर, पांडु (पीलिया), यकृत वृद्धि, बहुमूत्र सरीखे उदर तथा मूत्राशय के रोगों में इस बंध से बड़ा लाभ मिलता है। नाभि स्थित ‘समान’ तथा ‘कृकल’ प्राणों में स्थिरता तथा वात, पित्त, कफ की शुद्धि होती है। सुषुम्ना नाड़ी का द्वार खुलता है। स्वाधिष्ठान चक्र में चेतना आने से वह स्वल्प श्रम से ही जाग्रत होने योग्य हो जाता है।”

(2) अनुकंपी तथा परानुकपी तंत्रिकाओं को उत्तेजित करता है।

(3) मणिपुर चक्र के उत्प्रेरक का कार्य करता है।

स्वामी सत्यानंद सरस्वती के अनुसार, ”उड्डियान बंध से शरीर में स्फूर्ति आती है। यह मृत्युरूपी हाथी को चुनौती देने के लिए सिंह के समान है।’!

हटयोग ग्रंथों में बताया गया है कि इससे जरा, मृत्यु पर विजय मिलती है।

उड्डियान बंध में सावधानियाँ – उडिडियान बंध हेतु निम्नांकित तथ्यों का ध्यान रखना आवश्यक है-

(1) हृदय रोग, पेष्टिक अल्सर, कोलाइटिस से पीड़ित व्यक्ति न करें। हर्निया के रोगी भी न करें।
(2) गर्भवती महिलाएँ न करें।
(3) खाली पेट ही अभ्यास करना चाहिए।
(4) कम उम्र के बच्चों को नहीं करना चाहिए।
(5) प्रारंभ में तीन बार से अधिक न करें। संख्या धीरे-धीरे बढ़ाएँ।
(6) इसे करने से पूर्व प्राणायाम के अभ्यास में निपूर्ण होना चाहिए, क्योंकि इसका अभ्यास बहिकुभक में करते हैं।

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अजितेश कुँवर, कुँवर योगा, देहरादून के संस्थापक हैं। भारत में एक लोकप्रिय योग संस्थान, हम उन उम्मीदवारों को योग प्रशिक्षण और प्रमाणन प्रदान करते हैं जो योग को करियर के रूप में लेना चाहते हैं। जो लोग योग सीखना चाहते हैं और जो इसे सिखाना चाहते हैं उनके लिए हमारे पास अलग-अलग प्रशिक्षण कार्यक्रम हैं। हमारे साथ काम करने वाले योग शिक्षकों के पास न केवल वर्षों का अनुभव है बल्कि उन्हें योग से संबंधित सभी पहलुओं का ज्ञान भी है। हम, कुँवर योग, विन्यास योग और हठ योग के लिए प्रशिक्षण प्रदान करते हैं, हम योग के इच्छुक लोगों को इस तरह से प्रशिक्षित करना सुनिश्चित कर सकते हैं कि वे दूसरों को योग सिखाने के लिए बेहतर पेशेवर बन सकें। हमारे शिक्षक बहुत विनम्र हैं, वे आपको योग विज्ञान से संबंधित ज्ञान देने के साथ-साथ इस प्राचीन भारतीय विज्ञान को सही तरीके से सीखने में मदद कर सकते हैं।

 

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Mr. Ajitesh Kunwar Founder of Kunwar Yoga – he is registered RYT-500 Hour and E-RYT-200 Hour Yoga Teacher in Yoga Alliance USA. He have Completed also Yoga Diploma in Rishikesh, India.

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