घेरण्ड संहिता में वर्णित आसनों का परिचय – घेरण्ड संहिता में शुद्धिकरण के बाद आसनों का अभ्यास शारीरिक स्थिरता एवं दृढ़ता के लिए किया गया है। यहाँ दृढ़ता से तात्पर्य शरीर का स्थिर होना है। आसन शरीर की एक स्थिति है। जब हम शरीर की एक स्थिति में लम्बी अवधि तक बिना किसी तनाव के, बिना किसी शारीरिक कष्ट के सुखपूर्वक रह सकते हैं, तब वह स्थिति आसन कहलाती है।
आसनों का पहला उद्देश्य हमें शारीरिक और मानसिक कष्टों से मुक्ति दिलाना है। आसन शरीर के जोड़ों को लचीला भी बनाते हैं। वे शरीर की माँसपेश्यों में खिंचाव उत्पन्न कर उन्हें स्वस्थ बनाते हैं तथा शरीर से विषाक्त तत्वों को बारह निकाल फेंकते हैं। आसन तंत्रिका-तंत्र के कार्यकलापों में सामंजस्य उत्पन्न करते और हम मालिश द्वारा शरीर के आंतरिक अंगों कार्य क्षमता को बढ़ाते हैं। इस प्रकार धीरे-धीरे शरीर स्वस्थ बन जाता है। महर्षि घेरण्ड ने राजा चण्डकपालि को शरीरकि स्थिरता के लिए 32 आसनों की शिक्षा दी है। वे कहते हैं कि इस जगत् में जितने प्राणी हैं, उन सभी की सामान्य शारीरिक स्थिति को आधार बनाकर एक-एक आसन की खोज की गयी है।
आसनों की प्रारंभिक स्थिति में अनेक प्रकारान्तरों के द्वारा अपने शरीर को अन्तिम स्थिति के अभ्यास के लिए तैयार किया जाता है। अन्तिम स्थिति के लिए तैयारी की आवश्यकता होती है। स्थिर आसनों के लिए अपने शरीर को तैयार करने हेतु हमें गतिशील अभ्यासों को अपनाना पड़ता है। यहाँ पर आसनों की अन्तिम स्थिति का ही वर्णन किया गया है।
आसनानि समस्तानि यावन्तो जीवजन्तव:।
चतुरशीति लक्षाणि शिवेन कथितानि च।।
तेषां मध्ये विशिष्टानि शोडषेनं शतं कृतम्।
तेषां मध्ये मर्त्यलोके द्वात्रिशदासनं शुभम्।।
इस संसार में जितने जीव-जंतु हैं, उनके शरीर की जो सामान्य स्थिति है, उस भंगिमा का अनुसरण करना आसन कहलाता है। भगवान् शिव ने चौरासी लाख आसनों का वर्णन किया है। उनमें से चौरासी विशिष्ट आसन हैं ओर चौरासी आसमनों में से बत्तीस आसन मृत्यु लोक के लिए आवश्यक माने गये हैं। जो सूची दी गयी है उसे देखने से यही लगता है कि सभी बत्तीस आसन, जिनका वर्णन महर्षि घेरण्ड ने किया है, स्थिर रूप से किये जाने वाले अभ्यास हैं।
आसनों का परिचय, अर्थ एवं परिभाषा की जानकारी इन हिंदी
आसन के प्रकार –
सिद्ध पद्यं तथा भद्रं मुक्तं वज्रं च स्वस्तिकम्।
सिंह च गोमुखं वीरं धनुरासनममेव च।।
मृतं गुप्तं तथा मात्स्यं मत्स्येन्द्रासनमेव च।
गोरक्षं पश्चिमोत्तामुत्करटं सकंट तथा ।।
मयूरं कुक्कुटं कूर्म तथा च उत्तानकूर्मकम्।
उत्तानमण्डुकं वृक्षं मण्डुकं गरूडं वृषभासनम्।।
शलभं मकरं चोष्टं भुजंगं योगमानसम्।
द्वात्रिंशदासनान्येव मर्त्ये सिद्धिप्रदानि च।।
घेरण्ड संहिता में आसन 32 प्रकार के बताए गए हैं, जो निम्न हैं –
1) सिद्धासन, (2) पद्मासन, (3) भद्रासन, (4) मुक्तासन, (5) वज्रासन, (6) स्वस्तिकासन, (7) सिंहासन, (8) गोमुखासन, (9) वीरासन, (10) धनुरासन, (11) मशतास, (12) गुप्तासन, (13) मत्स्यासन, (14) मत्स्येंद्रासन (15) गोरक्षासन, (16) पश्चिमोत्तानासन, (17) उत्कट आसान, (18) संकट आसन, (19) मयूरासन, ( 20) कुक्कुटासन, (21) कूर्मासन, (22) उत्तान कूमार्सन, (23) मंडूकासन, (24) उत्तानमंडूकासन, (25) वृक्षासन, (26) गरुड़ासन, (27 ) वृषभासन, (28 )शलभासन, (29) मकरासन, (30) उष्ट्रासन, (31)भुजंगासन, (32)योगासन।
हठप्रदीपिका में वर्णित आसनों का परिचय –
हठयोग की अभ्यास प्रक्रिया अष्टांग योग से भिन्न है। हठयोग एक संक्षिप्त मार्ग है जबकि अष्टांगयोग राजमार्ग । हठयोग शीघ्र लक्ष्य प्राप्त कराने के लिए कुछ कृत्रिम उपायों का भी सहारा लेता है। अत: हठयोग को आज का (20 वीं शताब्दी का ) योग कहा जा सकता है। इस योग में थोड़ी सी गलती होने से खतरे या हानि की भी सम्भावना बनी रहती है। यही कारण है कि हठयोग के ग्रंथों में बारम्बार यह आदेश मिलता है कि इसका अभ्यास जानकार व्यक्ति के निर्देशन में ही करना चाहिए, अमुक विधि से ही करनी चाहिए।
हठयोग, आसन में (प्रारम्भ में) यद्यपि व्यायाम या विशेष प्रयत्न को भी सम्मिलित करता है, किन्तु अन्ततः आसनों के अभ्यास से शारीरिक स्थैर्य, आरोग्य तथा शरीर में हल्कापन आदि का अनुभव को तो मानता ही है। अतः स्पष्ट है कि प्रारम्भ में कुछ व्यायामात्मक-प्रक्रिया। भले ही रहे, किन्तु अभ्यास बढ़ने पर यहाँ भी आसनों में स्थिरता सुख आदि को महत्व दिया गया है।
हठस्य प्रथमाड्गत्वादासनं पूर्वमुच्यते।
कर्यात्तदासनं स्थैर्यमारोगयं चाडू.लाघवम्।।
आसन, चूंकि हठयोग का पहला अंग है, अतः सर्वप्रथम उसका निरूपण किया गया है आसन (मानसिक तथा शारीरिक) स्थिरता, आरोग्य तथा शरीर में हल्कापन का अनुभव लाता है।
आसन के प्रकार – हठप्रदीपिका में 15 आसन बताए गए हैं-
(1)स्वस्तिकासन, (2) गोमुखासन, (3) वीरासन, (4) कुर्मासन, (5)कुक्कुटासन, (6)उत्तानकूर्मासन, (7) धनुरासन, (8) मत्स्येंद्रासन, (9) पश्चिमोत्तानासन, (10) मयूरासन, (11) शवासन, (12) सिद्धासन, (13)पद्मासन, (14) सिंहासन, (15) भद्रासन। इन आसनों में भी स्वामी स्वात्माराम ने सिद्धासन तथा पद्मासन को विशेष महत्व देते हुए विस्तार से इनका वर्णन किया है।
आसन का अर्थ –आसन शब्द संस्कृत भाषा के ‘अस’ धातु से बना है जिसके दो अर्थ हैं-पहला है ‘बैठने का स्थान’ तथा दूसरा ‘शारीरिक अवस्था।
(1) बैठने का स्थान
(2) शारीरिक अवस्था
बैठने के स्थान का अर्थ है जिस पर बैठते हैं जैसे-मृगछाल, कुश, चटाई, दरी आदि का आसन। आसन के दूसरे अर्थ से तात्पर्य है शरीर, मन तथा आत्मा की सुखद संयुक्त अवस्था या शरीर, मन तथा आत्मा एक साथ व स्थिर हो जाती है और उससे जो सुख की अनुभूति होती है वह स्थिति आसन कहलाती है।
आसन की परिभाषा –(1) महर्षि पतंजलि ने आसन को परिभाषित करते हुए कहा है-
स्थिरंसुखमासनम्।
स्थिरता और सुखपूर्वक बैठना आसन कहलाता है।
(2) तेजोबिंदु उपनिषद् में आसनों को इस प्रकार परिभाषित किया गया है-
सुखनैव भवेत् यस्मिन्जस्त्रं ब्रह्मचिंतनम्।
जिस स्थिति में बैठकर सुखपूर्वक निरंतर परमब्रह्म का चिंतन किया जा सके, उसे ही आसन समझना चाहिए।
(3) श्रीमद्भगवदगीता में श्रीकृष्ण ने आसनों को इस प्रकार बताया है-
सम कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिर:।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं सवं दिशश्चानवलोकयन्॥
कमर से गले तक का भाग, सिर और गले को सीधे अचल धारण करके तथा दिशाओं को न देख केवल अपनी नासिका के अग्र भाग को देखते हुए स्थिर होकर बैठना आसन है।
(4) अष्टांग योग में चरणदास जी ने कहा है-
चौरासी लाख आसन जानो, योनिन की बैठक पहचानो।
विभिन्न योनियों के जीव-जंतु जिस अवस्था में बैठते हैं उसी स्वरूप को आसन कहते हैं। इस प्रकार उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि जिस स्थिति में बैठने से सुख का अनुभव होता है वह आसन कहलाता है। आसनों का मुख्य उद्देश्य शारिरिक तथा मानसिक कष्टों से मुक्ति दिलावाना है। आसन से शरीर के जोड़ लचीले बनतें हैं।
इनसे शरीर की माँसपेशियों में खिंचाव उत्पन्न होता है जिससे वह स्वस्थ होती हैं तथा शरीर के विषाक्त पदार्थों को बाहर निकल फेंकने की क्रिया संपन्न होती है। आसन से शरीर के आंतरिक अंगों की मालिश होती है जिससे उनकी कार्यक्षमता बढ़ती है।
आसनों के प्रकार – साधारणतया आसनों को तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। कुछ आसनों का विभाजन निम्नलिखित है-
ध्यानात्मक् आसन – (1) पद्मासन (2) सिद्धासत (3) सुखासन (4) स्वस्तिकासन
शरीर संवर्द्धनात्मक आसन – (1) शीर्षासन (2) सर्वांगासन (3) भुजंगासन (4) हलासन (5) सुप्त वज्रासन
शिथिल कारक – (1) शवासन (2) मकरासन
आसनों को खड़े होने, बैठने तथा लेटने की स्थिति के अनुसार भी तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है-
(1) खड़े होकर किए जाने वाले आसन
(2) बैठकर किए जाने वाले आसन
(3) लेटकर किए जाने वाले आसन।
खड़े होकर किए जाने वाले आसनों में हाथ-पैर तथा कमर का परिश्रम अधिक होता है। बैठकर किए जाने वाले आसनों में पीठ, गरदन, कंधे अधिक श्रम करते हैं तथा लेटकर किए जाने वालों में पेट, छाती, गले को अधिक मेहनत करनी पड़ती है।
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