हठप्रदीपिका के रचयिता स्वात्माराम योगी ने यह बताया है-‘ केवलं राजयोगाय हठविद्योपदिश्यते ‘ अर्थात केवल राजयोग की साधना के लिए ही हठ विद्या का उपदेश करता हूँ। हठ प्रदीपिका में अन्यत्र भी कहा है कि आसन, प्राणायाम, मुद्राएँ आदि राजयोग की साधना तक पहुँचाने के लिए हैं-
पीठानि कुम्भकाश्चित्रा दिव्यानि करणानि च।
सर्वाण्यपि हठाभ्यासे राजयोगफलावधि:॥ – हठप्रदीपिका1/67
यह हठयोग (hathayog) भवताप से तप्त लोगों के लिए आश्रयस्थल के रूप में है तथा सभी योगाभ्यासियों के लिए आधार है-
अशेषतापतप्तानां समाश्रयमठो हठ: ।
अशेषयोगयुक्तानामाधारकमठो हठ: ॥ – हठप्रदीपिका 1/10
इसका अभ्यास करने के पश्चात अन्य योगप्रविधियों में सहज रूप से सफलता प्राप्त की जा सकती है। कहा गया है कि यह हठविद्या गोपनीय है और प्रकट करने पर इसकी शक्तिक्षीण हो जाती है-
हठविद्या परं गोप्या योगिनां सिद्धिमिच्छताम्।
भवेद्धवीर्यती गुप्ता निर्वीर्या तु प्रकाशिता।। – हठप्रदीपिका 1/11
इसलिए इस विद्या का अभ्यास एकांत में करना चाहिए जिससे अधिकारी-जिज्ञासु तथा साधकों के अतिरिक्त सामान्य जन इसकी क्रियाविधि को देखकर स्वयं अभ्यास करके हानिग्रस्त न हों। साथ ही अनाधिकारी जन इसका उपहास न कर सकें। जिस काल में ‘हठप्रदीषिका’ की रचना हुई थी, वह काल योग के प्रचार-प्रसार का नहीं था।
तब साधक ही योगाभ्यास करते थे। सामान्यजन योगाभ्यास को केवल ईश्वर प्राप्ति के उद्देश्यों से की जाने वाली साधना के रूप में जानते थे। आज स्थिति बदल गई है। योगाभ्यास जन-जन तक पहुँच गया है तथा प्रचार-प्रसार दिनोदिन प्रगति पर है। लोग इसकी महत्ता को समझ गए हैं तथा जीवन में ढालने के लिए प्रयत्नशील हो रहे हैं।
हठयोग (hathayog) के उद्देश्य के दृष्टिकोण से विचार करने पर हम देखते हैं कि राजयोग साधना को तैयारी के लिए भी हठयोग (hathayog) उपयोगी है ही, इस मुख्य उद्देश्य के साथ अन्य अवांतर उद्देश्य भी कहे जा सकते हैं जैसे-स्वास्थ्य का संरक्षण, रोग से मुक्ति, सुप्त चेतना की जाग्रति, व्यक्तित्व विकास तथा आध्यात्मिक उन्नति।
स्वास्थ्य का संरक्षण | हठयोग (hathayog) सिद्धि के लक्षण इन हिंदी
(1) स्वास्थ्य का संरक्षण – शरीर स्वस्थ रहे, रोगग्रस्त न हो, इसके लिए भी हम हठयौगिक अभ्यासों का आश्रय ले सकते हैं। ‘आसनेन भवेद् दृढम् ‘षट्कर्मणा शोधनम् आदि कहकर आसनों के द्वारा मजबूत शरीर तथा षट्कर्मों के द्वारा शुद्धि करने पर दोषी के सम हो जाने से व्यक्ति सदा स्वस्थ बना रहता है।
विभिन्न आसनों के अभ्यास से शरीर की माँसपेश्यों को मजबूत बनाया जा सकता है तथा प्राणिक उर्जा के संरक्षण से जीवनी शक्तिको बढ़ाया जा सकता है। शरीर में गति देने से सभी अंग-प्रत्यंग चुस्त बने रहते हैं तथा शारीरिक कार्यक्षमता में वर्शद्ध होती है जिससे शरीर स्वस्थ रहता है।
(2) रोग से मुक्ति – इन हठयोग (hathayog) के अभ्यासों को रोग-निवारण के लिए भी प्रयुक्त किया जा सकता है। कहा भी है-
कुर्यात्तदासनं स्थैर्यमारोग्यं चाड्.गलाघवम्। – हठप्रदीपिका 7/77
आसन शरीर और मन की स्थिरता, आरोग्यता और हल्कापन लाता है। विभिन्न आसनों का शरीर के विभिन्न अंगों पर जो प्रभाव पड़ता है, उससे तत्संबंधी रोग दूर होते हैं। जैसे मत्स्येद्रासन का प्रभाव पेट पर अत्यधिक पड़ता है तो यह उदर विकारों में लाभदायक है। यह वर्णित भी है-
मत्स्येन्द्रपीठं जठरप्रदीप्तिं प्रचंडरुग्मंडलखण्डनास्त्रम्।
अभ्यासतः कुण्डलिनीप्रबोध॑ चन्द्रस्थिरत्वं च ददाति पुंसाम्॥ – हठप्रदीपिका 7/27
मत्स्येद्रासन का अभ्यास करने से जठराग्नि प्रदीप्त होती है। यह रोगो को नष्ट करने में अस्त्र के समान है। इससे कुंडलिनी जाग्रत होती है तथा चंद्रमंडल स्थिर होता है इसी प्रकार षटकर्मों का प्रयोग करके रोग निवारण किया जी सकता है। यह वर्णित भी है-
कासश्वासप्लीहकुष्टं कफरोगाश्च विशति:।
धौतिकर्मप्रभाववेण प्रयान्त्येव न संशय:॥ – हैंठप्रदीषिका 2/24
धौति के द्वारा कास, श्वास, प्लीहा संबंधी रोग, कुष्ठ रोग, कफदोष आदि नष्ट होता है।
कपालशोधिनी चैव दिव्यदृष्टिप्रदायिनी।
जत्रुर्ध्वजातरोगौधं नेतिराशु निहन्ति च॥
नेति के द्वारा दृष्टि तेज होती है, कपाल की शुद्धि तथा स्कंध प्रदेश से ऊपर के रोग नष्ट होते हैं। आधुनिक वैज्ञानिक युग में यद्यपि आयुर्विज्ञान को नई वैज्ञानिक खोज हो रही है फिर भी अनेक रोग जैसे – मानसिक तनाव, मधुमेह, प्रमेह, उच्च रक्तचाप, निम्न रक्तचाप, साइटिका, कमर दर्द, सर्वाइकल स्पोंडोलाइटिस, आमवात, मोटापा, अर्श अनेक रोगों को योगाभ्यास द्वारा दूर किया जा रहा है।
(3) सुप्त चेतना की जाग्रति – हठयौगिक अभ्यास शरीर को वश में करने का उत्तम उपाय है। जब शरीर स्थिर और मजबूत हो जाता है तो प्राणायाम द्वारा श्वास को नियंत्रित किया जा सकता है। प्राण नियंत्रित होने पर मूलाधार में स्थित शक्तिको ऊर्ध्वगामी कर सकते हैं। प्राण के नियंत्रण से मन भी नियंत्रित हो जाता है। अत: मनोनिग्रह तथा प्राणापान संयोग से शक्तिजाग्रत होकर ब्रह्मनाड़ी में गति कर जाती है जिससे साधक को अनेक योग्यताएँ स्वत: प्राप्त हो जाती हैं।
(4) व्यक्तित्व विकास – साधक इन अभ्यासों को अपनाकर निज व्यक्तित्व का विकास करने में समर्थ होता है। उसमें मानवीय गुण स्वतः आ जाते हैं। शरीर गठीला, नीरोग, चुस्त, कांतियुक्त तथा गुणों से पूर्ण होकर एक अप्रतिम व्यक्तित्व का निर्माण करता है। ऐसे गुणों को धारण करके उसको वाणी में मृदुता, आचरण में पवित्रता, व्यवहार में सादगी, स्नेह, सौमनस्य आदि का समावेश हो जाता है, जो उसे वास्तविक मनुष्य सिद्ध करते हैं।
(5) आध्यात्मिक उन्नति – कुछ लोग जिज्ञासु होते हैं। जो योग द्वारा साधना में सफल होकर साक्षात्कार करना चाहते हैं उनके लिए तो योग ही सुगम साधन है। साधक साधना के लिए आसन-प्राणायामादि का अभ्यास करके दृढ़ता तथा स्थिरता प्राप्त करके ध्यान के लिए तैयार हो जाता है। ध्यान के अभ्यास से समाधि तथा साक्षात्कार को अवस्था तक पहुँचा जा सकता है। अतः आध्यात्मिक उन्नति हेतु भी हठयोग (hathayog) एक साधन है। गुहा समाजतंत्र में कहा गया है कि यदि ज्ञानप्राप्ति (बोध) न हो तो हठयोग (hathayog) का अभ्यास करें।
यदा न सिद्धयते बोधिर्हठयोगेन साधयेत्।
पूर्व में बताई गई विधि से यदि बोधि प्राप्त न हो तो हठयोग (hathayog) का आश्रय लेना चाहिए। राजयोग साधना का आधार होने के कारण इसे भी राजयोग के समकक्ष स्थान प्राप्त है। प्राणायाम से मानसिक विकार दूर होते हैं। मन अपनी इच्छानुकूल गति न करके साधक के वश में हो जाता है और साधक का अंतःकरण पवित्र होने के कारण उसमें दोषी या विकारों के लिए कोई स्थान नहीं बचता। इसी कारण ऐसा साधक संसार में एकत्व की भावना रखता हैं। वह न किसी से राग, न किसी से द्वेष की स्थिति प्राप्त होने पर सब पापों से मुक्त होकर अध्यात्म मार्ग पर अग्रसर हो जाता है। ऐसा साधक ही संसार का आभूषण बनकर सबके हृदयों पर राज्य करता है।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से प्राणायाम का उद्देश्य चित्त की स्थिरता है जिससे समाधि को अवस्था प्राप्त करके कैवल्य की सीमा में प्रवि ट हो सके। कहा भी है –
चले वाते चले चित्तं निश्चले निश्चलं भवेत्। – हठप्रदीपिका 2/2
इसलिए चित्त की चंचलता को समाप्त करने के लिए प्राणायाम का प्रयोग किया जाता है। साधना की प्रारंभिक अवस्था में आसन का अभ्यास दृढ़ हो जाने के बाद चित्त को नियंत्रित करने में प्राणायाम महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है
प्राणायाम के अभ्यास से विवेकज्ञान पर पड़े अविद्या रूपी अज्ञान के आवरण को क्षीण किया जाता है और चित्त में धारणा, ध्यान व समाधि की योग्यता उत्पन्न हो जाती है जिससे चरमलक्ष्य कैवल्य की प्राप्ति संभव हो सकती है।
ततः क्षीयते प्रकाशावरणम्। – योगसूत्र 2/52
धारणासु च योग्यता मनसः। – योगयूत्र 2/53
मलाकुलासु नाडीषु मारुतो नैव मध्यग:।
कथं स्यादुन्मनीभावः कार्यसिद्धिः कथं भवेत्॥
शुद्धिमेति यदा सर्वं नाड़ीचक्रं मलाकुलम्।
तदैव जायते योगी प्राणसंग्रहण क्षमः॥
प्राणायामं ततः कुर्यानिन्त्यं सात्विकया धिया।
यथा सुषुम्नानाडीस्था मला: शुद्धि प्रयान्ति च॥ – हठप्रदीपिका – 2/4-6
हठयोग (hathayog) प्रदीपिका की मान्यता है कि मल से पूरित नाड़ियों में पवन का संचरण नहीं होता। सुषुम्ना में पवन-संचरण न होने पर कुंडलिनी जागरण संभव नहीं है। अत: प्राणायाम करके मलों का निवारण करने पर कुंडलिनी द्वारा चक्रभेदन की क्रिया होने से चरमलक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है। इसके लिए नाड़ीशोधन प्राणायाम का विधान किया गया है। भक्तिसागर में स्वामी चरणदास भी कहते हैं-
ज्यों – ज्यों होबै प्राणवश, त्यों – त्यों मन वश होय।
ज्यो – ज्यों इन्द्री थिर रहै, विषय जायं सब खाये॥
ताते प्राणायाम करि, प्राणायामहि सार।
पहिले प्राणायाम करि पीछे प्रत्याहार ।
यह तो निर्विवाद है कि प्राणायाम मनुष्य के लिए दैवी-वरदान है जिसका उपयोग करके वह भूलोक में रहकर सफलतापूर्वक जीवन-यापन कर सकता है। दोषों के नष्ट होने तथा सुसंस्कारों के अर्जन से वह उच्चतर योनियों में जन्म धारण करेगा अथवा कैवल्य की स्थिति प्राप्त कर असीम आनंद का उपभोग करेगा।
हठसिद्धि के लक्षण :
बोओ और काटो का सिद्धांत योग साधना में सर्वसिद्ध है। निर्दिष्ट विधि विधान से उपयुक्त स्थान पर श्रद्धाभावपूर्वक योगाभ्यास करने वाले को निश्चित रूपेण सिद्धि प्राप्त होती है। सिद्धि की उत्कर्ष अवस्था तक पहुँचने से पूर्व योगी में क्या-क्या और कैसे लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं, इसी को हठसिद्धि के लक्षण कहते हैं। व्यक्तित्व के आंतरिक, बाह्य एवं संपूर्ण पक्ष में लक्षण प्रकट होते हे।
हठप्रदीपिका के अनुसार :
वपुःकृशत्व वदने प्रसन्नता
नादस्फुटत्वं नयने सुनिर्मले।
अरोगता बिन्दुजयोऽग्निदीपनम्
नाडीविशुद्धिहंठसिद्धिलक्षणम्॥ – हठप्रदीपिका 2/28
शरीर में हलकापन, मुख पर प्रसन्नता, स्वर में सौ ठव, नयनों में तेजस्विता, रोग का अभाव, बिंद पर नियंत्रण, जठराग्नि की प्रदीप्ति तथा नाड़ियों की विशुद्धता, ये सब हठसिद्धि के लक्षण हैं |
शिव संहिता के अनुसार :
प्रौढवहिन: सुभोजी च सुखी सर्वाड्.गसुन्दर:।
सम्पूर्ण हृदयो योगी सर्वोत्साह बलान्वित:।
जायते योगिनोऽवश्यमेतत्सर्व कलेवरे॥ – 3/33
योग साधक प्रदीप्त जठराग्नि वाला, उचित अर्थात योगसम्मत भोजन करने वाला, सुखी, सभी प्रकार के बल एवं उत्साह से परिपूर्ण उदात्त हृदय वाला-ऐसे सभी लक्षण योगी के शरीर में निश्चय ही आ जाते हैं।
वशिष्ठ संहिता के अनुसार :
नाडीशुद्धिमवाप्नोति पृथक् चिह्नोपलक्षिताम्
शरीरलघुता दीप्तिर्जठराग्निविवर्धनम्॥
नादाभिव्यक्तिरिप्येतच्चिहं तच्छुद्धिसूचकम् ।
यावतेतानि सम्पश्येत्तावदेवं समाचरेत्॥ -2/68,69
इससे नाड़ी शुद्धि सूचक पृथक-पृथक चिह्न प्राप्त होते हैं, जैसे शरीर का हलकापन, कांति, जठराग्नि का बढ़ना और नाद का आविर्भाव, ये सभी चिह्न दिखाई देने तक इस प्रकार अभ्यास करना चाहिए।
योगतत्वोपनिषद् के अनुसार :
जायन्ते योगीनो देहे तानि वश्ष्याम्यशेषत:
शरीरलघुता दीप्ति जाठराग्निविवर्धनम्।
कृशत्वं च शरीरस्य तदा जायेत निकिचतम्
योगविध्नकराहारं वर्जयेद्योगवित्तम:॥ -45,46
ये ऐसे बीज हैं कि शरीर में हलकापन मालूम होता है, जठराग्नि तीव्र हो. जाती है, शरीर भी निश्चित रूप से कृश हो जाता है, ऐसे समय में योग में बाधा पहुँचाने वाला आहार त्याग देना चाहिए। जबालदर्शनोपनिषद् में दिया हुआ श्लोक (खंड 5-/2) वसिष्ठसंहिता में दिए हुए श्लोक के समान है।
शांडिल्योपनिषद् के अनुसार :
ततः कृशवपु: प्रसन्नवदनो निर्मलोचनो भिव्यक्तनादो:।
निर्मशक्तरोगजालो जित बिन्दु: पटवग्रिर्भवति॥
अत: इस प्रकार से हम समझ सकते हैं कि मानव जीवन में हठयोग (hathayog) से हमें क्या प्राप्त हो सकता है तथा किस प्रकार हम इसके द्वारा अपने जीवन का सर्वांगीण विकास करते हुए साधना मार्ग में आगे बढ़ सकते हैं तथा हम इस मार्ग पर कितना आगे बढ़ चुके हैं, हठसिद्धि के लक्षणों के द्वारा हम इसकी पहचान स्वयं कर सकते हैं। अतः सिद्ध होता है कि हठयोग (hathayog) का मार्ग हमारे लिए कितना उपयोगी है।
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