त्राटक – त्राटक का अर्थ स्थिर दृष्टि से किसी एक केंद्र बिंदु को देखना अर्थात वह वस्तु जिस पर हम दृष्टि को बाँधे हुए हैं उसे तब तक देखेंगे जब तक आँखों से आँसू न गिर जाए।
त्राटक के प्रकार, विधि, लाभ और सावधानियाँ की जानकरी इन हिंदी
मुख्यतः त्राटक के तीन प्रकार बताए गए हैं-
बहिर्त्नाटक – इसमें हम किसी साकार रूप या मूर्त रूप पर अपनी दृष्टि लगाते हैं। अपनी रुचि के अनुसार एक प्रतीक चुनकर (सूर्य, चंद्रमा, इष्टमूर्ति इत्यादि) उसी प्रतीक पर अपनी दृष्टि लगाकर एकटक देखते हुए हमारी चेतना उसके साथ एक हो जाए। इससे चित्त की वृत्ति को बदलकर उसे सरलता से अंतर्मुखी किया जा सकता है। प्रारंभ में मोमबत्ती अथवा दीपक की ज्योति से त्राटक का अभ्यास करना चाहिए।
अंतरंग त्राटक या अंतर्त्नाटक – इसमें आँखों को बंद कर मन को कल्पना शक्ति को जाग्रत कर चिदाकाश में एक दृश्य को ठहरा कर उस पर त्राटक करते हैं। इसमें हम किसी भी प्रतीक ( आंतरिक या मानसिक) को चुन सकते हैं। आरंभ में, बाह्य त्राटक के बाद ही अंतरंग त्राटक का अभ्यास सूद है। अंत: त्राटक से शक्ति को एक निश्चित मार्ग की ओर ले जाने के लिए यह प्रभावशाली क्रिया सिद्ध होती है। इस त्राटक से एकाग्रता और ध्यान की अवस्था प्राप्त होती है।
अधोत्राटक – इसका अभ्यास आँखों को आधा खुला और आधा बंद कर किया जाता है। अधखुली आँख को प्रतिपदा दृष्टि कहा जाता है। नासिकाग्र मुद्रा तथा शांभवी मुद्रा को भी अधोत्राटक के अंतर्गत माना जाता है।
अधोत्राटक की विधि -( बाह्य और सूक्ष्म त्राटक) किसी भी ध्यानात्मक आसन में बैठकर 1-1 फुट की दूरी पर आँखों के सामने उसी तल में मोमबत्ती या दिया जला कर रखते हैं। जब ध्यानपूर्वक ज्योति के बीच जो काले रंग की लौ है उसे देखते हैं। केवल लौ ही देखते हैं। 30-30 सेकंड से 2-3 मिनट तक पलक को झपकाना नहीं है। जब आँख से आँसू निकलने लगे तब आँख बंद कर लीन है। जब तक …………………………कोई विचार भाव ………उस विचार भाव से देखते दैं। जब छाया धुँधली हो जाती है तो पुनः इस क्रिया की पुनरावृत्ति करते हैं।
(1) त्राटक का अभ्यास चश्मा लगाकर नहीं करना चाहिए।
(2) सूक्ष्म त्राटक में प्रतीक एक स्थान पर केंद्रित रहना चाहिए।
(3) इस अभ्यास को प्रातःकाल या रात्रि में ही करना उचित माना गया है।
(4) गुरु के संरक्षण में ही करना चाहिए।
(1) इससे नेत्र दोष दूर होता है। इससे दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है (दैविक लाभ)। शांभवी सिद्धि प्राप्त होती है (आध्यात्मिक लाभ)।
(2) इस अभ्यास से चित्त को स्थिर और तनाव मुक्त बनाया जा सकता है। अनिद्रा एव स्नायुविक दुर्बलता में लाभ मिलता है। इससे आत्मबल बढ़ता है।
(3) इसका प्रभाव मस्तिष्क तरंगों पर पड़ता है।
(4) एकाग्रता और सजगता के अभ्यास के रूप में मन को निर्विकार बनाने और अंतःकरण को शुद्ध करने के लिए यह उत्तम माना गया है।इसे भी पढ़ें – गोमुखासन का अर्थ – विधि, लाभ और सावधानियां